मुहब्बत का ज़ला हूँ मैं,पिघलता ही रहा हूँ मैं
ख़ुदा से माँगकर तुझको,भटकता ही रहा हूँ मैं
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समन्दर के किनारों ने समेटा है बहुत मुझको
मगर आँखों की कोरों से निकलता ही रहा हूँ मैं
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अगर सच बोलता हूँ तो,समझते हैं मुझे पागल
मगर सच्चाई को लेकर ,उबलता ही रहा हूँ मैं
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सितारों की कसम ले ले,नजारों की कसम ले ले
तेरे दीदार की ख़ातिर मचलता ही रहा हूँ मैं
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मेरी किस्मत के सौदागर ,मुझे इन्साफ तो दे दे
मेरी तनहाई को लेकर, सिमटता ही रहा हूँ मैं
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उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
वाह सर बहुत खूब ग़ज़ल हुई है बहुत बधाई ..........
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