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मुझे तो जीतना ही था (नज़्म, बह्र-ए-हजज़)

1 2 2 2

 

हुआ पैदा कि धोके से, किसी का पाप मैं बन के

मुझे फेंका गया गन्दी कटीली झाड़ियों में फिर

कि चुभती झाड़ियाँ फिर फिर, कि होता दर्द भी फिर फिर

यहाँ काटे कभी कीड़े, वहां फिर चीटियाँ काटे

 

पड़ा देखा, उठा लाई, मुझे इक चर्च की दीदी.

 

हटा के चीटियाँ कीड़े, धुलाए घाव भी मेरे

बदन छालों भरा मेरा, परेशां मैं अज़ीयत से

खुदा से मांगता हूँ मौत अपनी सिर्फ जल्दी से

 

बड़ी नादान दीदी वो, लगाती जा रही मरहम

दुआ करती हुई वो मांगती बस जिंदगी मेरी

कि जैसे शर्त दीदी और मेरे बीच चलती सी

 

कज़ा-ओ-ज़ीस्त का जैसे कि कोई सामना ही था

कि दीदी हार बैठी फिर, मुझे तो जीतना ही था

 

 

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(मौलिक व अप्रकाशित) - मिथिलेश वामनकर 
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 (नज़्म, बह्र-ए-हजज़)  [ 1 2 2 2 ]

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 10, 2014 at 8:40pm

आदरणीय मिथिलेश भाई , बढिया  नज़्म कही है , हार्दिक बधाइयाँ ।

Comment by Rahul Dangi Panchal on December 10, 2014 at 6:35pm
आदरणीय मिथिलेश जी अगर आप मुझे नज़्म के रूप व मूल तथ्यो से अवगत कराए तो बडी मेहरबानी होगी!सादर निवेदन!
Comment by Rahul Dangi Panchal on December 10, 2014 at 6:21pm
बहुत सुन्दर वाह!

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 10, 2014 at 5:19pm
आदरणीय योगराज प्रभाकर सर, आपने दो बड़ी त्रुटियाँ चिन्हित कर दी जो दरअसल मेरे उच्चारण दोष का नतीजा है। इन्हें शीघ्र सुधारने का प्रयास करता हूँ। आपकी रचना पर उपस्थिति से ही बहुत उत्साह मिलता है और त्रुटियाँ भी सही हो जाती है। आपका आभार। धन्यवाद। आपने सही कहा दास्ताँ को नज़्म की शक्ल में कहने का प्रयास कर रहा हूँ इन दिनों।

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on December 10, 2014 at 3:41pm

नज़्म में बहुत खूबसूरती वसे अफ़साना कहा है भाई मिथिलेश वामनकर जी, पढ़कर अच्छा लगा। नज़्म की रवानी बहुत प्रभावशाली है। दो जगह आपकी तवज्जो चाहूँगा :

१. //मुझे फेंका गया इक बेशरम की झाड़ियों में फिर// "बेशरम की झाड़ियों में ?"
२. // कज़ा-ओ-जिस्त// " जिस्त या ज़ीस्त ?"

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