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हुआ पैदा कि धोके से, किसी का पाप मैं बन के
मुझे फेंका गया गन्दी कटीली झाड़ियों में फिर
कि चुभती झाड़ियाँ फिर फिर, कि होता दर्द भी फिर फिर
यहाँ काटे कभी कीड़े, वहां फिर चीटियाँ काटे
पड़ा देखा, उठा लाई, मुझे इक चर्च की दीदी.
हटा के चीटियाँ कीड़े, धुलाए घाव भी मेरे
बदन छालों भरा मेरा, परेशां मैं अज़ीयत से
खुदा से मांगता हूँ मौत अपनी सिर्फ जल्दी से
बड़ी नादान दीदी वो, लगाती जा रही मरहम
दुआ करती हुई वो मांगती बस जिंदगी मेरी
कि जैसे शर्त दीदी और मेरे बीच चलती सी
कज़ा-ओ-ज़ीस्त का जैसे कि कोई सामना ही था
कि दीदी हार बैठी फिर, मुझे तो जीतना ही था
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(मौलिक व अप्रकाशित) - मिथिलेश वामनकर
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(नज़्म, बह्र-ए-हजज़) [ 1 2 2 2 ]
Comment
आदरणीय मिथिलेश भाई , बढिया नज़्म कही है , हार्दिक बधाइयाँ ।
नज़्म में बहुत खूबसूरती वसे अफ़साना कहा है भाई मिथिलेश वामनकर जी, पढ़कर अच्छा लगा। नज़्म की रवानी बहुत प्रभावशाली है। दो जगह आपकी तवज्जो चाहूँगा :
१. //मुझे फेंका गया इक बेशरम की झाड़ियों में फिर// "बेशरम की झाड़ियों में ?"
२. // कज़ा-ओ-जिस्त// " जिस्त या ज़ीस्त ?"
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