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आदरणीय राहुल जी व्यस्त होने के बावजूद साहित्य के प्रति आपका समर्पण आश्वस्त करता है। अक्सर शायरों को ये गुमान होता है कि वो श्रेष्ठ है या वो जो कहे वो सही या वो बहुत अच्छा शायर है लेकिन इस गुुरूर के परे यदि सोचा जाये तो ग़ज़लगोई आसान नहीं ज़्यादातर कवि अपनी सोच के अनुसार काव्यकर्म करता है ज़रूरी नहीं कि हर कोई बिम्बों व प्रतीकों का वैसा अर्थ निकाले जैसा रचनाकार चाहता है इसके बावजूद रचना अच्छी बन पड़ती है, हर शायर की सोच शख्सियत अलग होती है जिसकी तासीर उसकी रचनाओं में दिखती है। ठीक उसी तरह हर पाठक की सोच भी अलग होती है वो रचनाओं को अपने हिसाब से देखता है। दो मिसरों में पूरी बात कहना आसान नहीं है।
आप गज़ल की मूलभूत बातों को ध्यान में रखिये जहाँ तक हो सके ऐब से बचने की कोशिश कीजिये ग़ज़लियत कोई सिखा नहीं सकता आपकी ग़ज़ल में ग़ज़लियत निरंतर अभ्यास व अध्ययन से आयेगी।
आपकी इस रचना की बात करूँ तो आपने रदीफ़ो काफ़िया बह्र खूब निभाया है। पिछली रचना को देखने के बाद आपका रचनाकर्म आश्वस्त करता है। बहुत बहुत बधाई आपको, अभ्यासरत रहें।
बस इतना ही कहूँगा कि पत्थर को तराशने से मूर्ति निकल आती है ...यह मंच कुछ ऐसा ही है ... सभी विद्वानों का बहुत बहुत आभार ...यह सीखने सिखाने का मंच अपना काम बखूबी करता रहे और हम सब इस अमृत कलश से कुछ बूँदें भी निकल पायें तो अपने आपको भाग्यशाली समझेंगे... सादर!
आदरणीय राहुल जी ..बहुत सुंदर भाव है ..तकनीकी बिषय पर बिद्व्त जानो की राय आपके सामने है . आप मैं हम सब यहाँ सीख रहे है आपके इस प्रयास पर पुनः बधाई के साथ सादर
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