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गजल - कि तब जाके सुदर्शन को पडा मुझको उठाना था!

1222 1222 1222 1222

मेरी कुछ भी न गलती थी मगर दुश्मन जमाना था!
जमाने को मुझे मुजरिम का यह चोला उढ़ाना था!!

मेरे हाथों में बन्दूकें कहाँ थी दोस्त मेरे तब!
मैं तो बच्चों का टीचर था मेरा मकसद पढ़ाना था!!

हजारों कोशिशे की बात मैनें टालने की पर!
कहाँ टलती? रकीबों को तो मेरा घर जलाना था!!

मेरा भी था कली सा एक नन्हा,फूल सा बेटा!
वही मेरा सहारा था वही मेरा खजाना था!!

उतर आये लिये हथियार घर में जब अधर्मी वें!
कि तब जाके सुदर्शन को पडा मुझको उठाना था!!








मौलिक व अप्रकाशित!

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 1, 2015 at 2:38am
आदरणीय राहुल भाई जी संशोधित रचना पर बहुत बहुत बधाई। आपकी कुछ कमाल की गज़लें पढ़ चूका हूँ उन ग़ज़लों की सादगी देखते ही बनती है। ये चूँकि सबसे बाद की रचना है इसलिए शिल्प और कहन दोनों स्तरों पर उनसे बेहतर की उम्मीद सबको होती है। गलतियां होना एक बात है वो गुणीजन सुधार देंगे किन्तु रचना इतनी अलग न हो की गुणीजनों को खीझ हो जाए। मेरी टिप्पणी के पहले की टिप्पणी आपने पढ़ी होगी उनमें लगा जैसे सब खीझ रहे है। मुझे वो ज्यादा बुरा लगा। इसलिए मैंने केवल छोटे छोटे सुधार हेतु सुझाव दिए थे । आप बहुत सादगी से लिखते है जो आपकी विशिष्टता है इसे जरूर से बनाये रखे लेकिन उससे ज्यादा जरुरी है ओ बी ओ की ग़ज़ल की कक्षा और ग़ज़ल की बातें । इन दोनों का अध्ययन बहुत लाभकारी होता है अपने अनुभव की बात बता रहा हूँ। मैंने ग़ज़ल का शिल्प इसी मंच से सीखा है। इसके अलावा ग़ज़ल एक बात शायरी या गीत की कहन की तो भाई वो तो कोई नहीं सिखा सकता वो अध्ययन और अभ्यास से ही आता है। आपके रचना कर्म पर थोड़ा ज्यादा लिख गया वो मात्र इसलिए कि उससे ज्यादा भारी प्रतिक्रियाएं आने लगी थी। बहुत देर तक आपकी रचना पर विचार किया और बहुत समय भी दिया है। क्योकि आपमें बहुत संभावनाएं है और व्यक्तिगत रूप से आपकी रचनाओं की सादगी का कायल हूँ। जो अशआर हटाये है वो सही किया। दरअसल ग़ज़ल में क्या करना है से अधिक जरुरी क्या नहीं करना है का महत्त्व है। इस मंच पर बहुत सारे गुणीजन है उनसे हमें बहुत कुछ सीखना है। अभी हम ग़ज़ल की कक्षा की नर्सरी में है जल्दी केजी 1 में आना है और उसके लिए इस मंच पर बहुत सारे पी एच डी वाले गुणीजन है।
Comment by Rahul Dangi Panchal on December 31, 2014 at 8:18pm
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय शिज्जू शकूर जी!

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 31, 2014 at 8:08pm

आदरणीय राहुल जी व्यस्त होने के बावजूद साहित्य के प्रति आपका समर्पण आश्वस्त करता है। अक्सर शायरों को ये गुमान होता है कि वो श्रेष्ठ है या वो जो कहे वो सही या वो बहुत अच्छा शायर है लेकिन इस गुुरूर के परे यदि सोचा जाये तो ग़ज़लगोई आसान नहीं ज़्यादातर कवि अपनी सोच के अनुसार काव्यकर्म करता है ज़रूरी नहीं कि हर कोई बिम्बों व प्रतीकों का वैसा अर्थ निकाले जैसा रचनाकार चाहता है इसके बावजूद रचना अच्छी बन पड़ती है, हर शायर की सोच शख्सियत अलग होती है जिसकी तासीर उसकी रचनाओं में दिखती है। ठीक उसी तरह हर पाठक की सोच भी अलग होती है वो रचनाओं को अपने हिसाब से देखता है। दो मिसरों में पूरी बात कहना आसान नहीं है।
आप गज़ल की मूलभूत बातों को ध्यान में रखिये जहाँ तक हो सके ऐब से बचने की कोशिश कीजिये ग़ज़लियत कोई सिखा नहीं सकता आपकी ग़ज़ल में ग़ज़लियत निरंतर अभ्यास व अध्ययन से आयेगी।
आपकी इस रचना की बात करूँ तो आपने रदीफ़ो काफ़िया बह्र खूब निभाया है। पिछली रचना को देखने के बाद आपका रचनाकर्म आश्वस्त करता है। बहुत बहुत बधाई आपको, अभ्यासरत रहें।

Comment by Rahul Dangi Panchal on December 30, 2014 at 9:16pm
आदरणीय JAWAHAR LAL SINGH जी सही कहा मैं अपनी रतना को सुधारने का प्रयत्न कर रहा हुँ! सादर धन्यवाद!
Comment by JAWAHAR LAL SINGH on December 30, 2014 at 8:52pm

बस इतना ही कहूँगा कि पत्थर को तराशने से मूर्ति निकल आती है ...यह मंच कुछ ऐसा ही है ... सभी विद्वानों का बहुत बहुत आभार ...यह सीखने सिखाने का मंच अपना काम  बखूबी करता रहे और हम सब इस अमृत कलश से कुछ बूँदें भी निकल पायें तो अपने आपको भाग्यशाली समझेंगे... सादर!

Comment by Dr Ashutosh Mishra on December 30, 2014 at 3:14pm

आदरणीय राहुल जी ..बहुत सुंदर भाव है ..तकनीकी बिषय पर बिद्व्त जानो की राय आपके सामने है . आप मैं हम सब यहाँ सीख रहे है आपके इस प्रयास पर पुनः बधाई के साथ सादर 

Comment by Rahul Dangi Panchal on December 30, 2014 at 12:10pm
आदरणीय मिथिलेश जी मै इसके लिए बार बार क्षमा चाहता हुँ! मैं इसे नज़्म कर दूंगा! सर मुझे इतनी नॉलिज नहीं है मैनें पहले ही क्हा की मैं केवल सीख रहा हुँ अगर यह नज़्म है तो क्रपया थोडा समय और देके मेरा मार्गदर्शन करें कि अब क्या करना चाहिए मुझे! मुझे आप शिष्य की तरह ले! गुरूवर ! आपकी इस टिप्पणी का इन्तजार रहेगा!सादर!

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 30, 2014 at 11:58am
आदरणीय राहुल भाईजी आपने शीर्षक में ग़ज़ल लिखा है और टिप्पणी में इसे नज़्म कह रहे है। किसी बदमाश की दास्ताँ। आपने तो विधा ही बदल दी। कृपया निवेदन है हम पाठको की ऐसी कठिन परीक्षा न लें। सादर।
Comment by Rahul Dangi Panchal on December 30, 2014 at 11:53am
आदरणीय खुर्शीद जी आपने मेरी प्रार्थना सुनी इसके लिए मै आपका बार बार शुक्रिया अदा करता हुँ!
Comment by Rahul Dangi Panchal on December 30, 2014 at 11:40am
-----------
इस मंच से ही मैने सब कुछ सीखा है मै सभी आदरणीयों को सादर धन्यवाद करता हुँ और बहुत बहुत आभारी हुँ कि आप सबने मेरी रचना को समय देकर मुझे सुझाव रूपी अम्रत दिया! परन्तु जब तक किसी को ये न पता हो कि यह गलत क्यों है तब वह गलती उससे दुबारा होने की सम्भावना बनी रहेगी! अत: सभी आदरणीयों से निवेदन है क्रपया मेरी इन उलझनो को सुलझाने का कष्ट करें!

सबसे पहले मैं आपको बताना चाहता हुँ मैने यह गजल एक अपने गाँव के बदमाश को केन्द्र मानकर उसकी कहानी लिखी थी! एक तरह से नज़्म!
मैं अपनी सभी कमियों को सुधारने का प्रयत्न कर रहा हुँ!इसलिये आदरणीय मिथिलेश जी यह भूत काल में ही रहेगी!

मेरे हाथों में बन्दूकें कहाँ थी दोस्त मेरे तब!
मैं तो बच्चों का टीचर था मेरा मकसद पढ़ाना था!!.........क्या अब ठीक आदरणीय !

हजारों कोशिशे की बात मैनें टालने की सब!
मगर मेरे रकीबो को तो मेरा घर जलाना था!!.........रकीब=दुश्मन
आदरणीयों आप सब ही अर्थात मेरे बडे तो कहते हो जब लडाई में ( बात जितनी टाली जा टाले करें) !मै तो सब चुप लगा रहा था पर दुश्मन को शान्ति प्रिय नहीं थी!मेरी छोटी समझ से इतना अर्थ तो है ना! आप सब से मै ये सब बच्चे की तरह पुछ रहा हुँ..... मै समझना चाहता हुँ..!

आदरणीय यह तो मैनें उदाहरण की तरह प्रयोग किया है......
//दुशासन थे शकूनी थे, थे दुर्योधन मेरे दुश्मन!
रकीबों से किसी सूरत भी मुश्किल घर बचाना था!!


मेरा किस्सा महाभारत है घर जाकर जरा पढ़ना!
मगर इन कौरवों में तो पितामह भी निभाना था!!

गली मौहल्ला सब कौरव थे और मैं एक था पांडव!
कि क्रष्णा भी मुझे इस युद्ध में तब बन के आना था!!// ये क्यों कहे गए है भाई जी समझ नहीं पाया .....
कि मैनें ईंट का बदला लिया पत्थर से जब यारों!
वो तब ऐसा ही मौसम था वो ऐसा ही जमाना था!.. यहाँ मौसम का अर्थ परिस्थिति से है और जमाने का अर्थ माहौल से ! सादर! पर जब कोई समझ ही न पाए तो फिर कोई मायने नहीं!सादर!

मैं इन सबको बदल दूंगा बस मैं अपनी उलझनो को दूर करना चाहता हुँ!

आदरणीय यह बात मैं विशेष
तौर पर समझना चाहुंगा क्रपया जरुर समझाए..
//मेरी किस्मत तो देखों तुम मैं इक आशिक भी हुँ यारों!
किसी की बेवफाई का मुझे गम भी उठाना था!!

मुझे उस पर भरोसा था वो ऐसी हो नहीं सकती!
मगर उस बेवफा को भी जमाने को हँसाना था!!/.. इसमें कोई शायरी नहीं है भाई जी... .....मैं कैसे पता करूं क्या शायरी है क्या नहीं आदरणीय गुनीजन मुझे इस बारे में जरूर बताए मुझे अपना थोडा सा किमती समय और दे!
सादर !

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