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ग़ज़ल --- ज़रा सा बाज़ आ जाओ

1222 / 1222 / 1222 / 1222
-
ग़ज़ल ने यूँ पुकारा है मेरे अल्फाज़, आ जाओ 
कफ़स में चीख सी उठती, मेरी परवाज़ आ जाओ

 

 

चमन में फूल खिलने को, शज़र से शाख कहती है 
बहारों अब रहो मत इस कदर नाराज़ आ जाओ



किसी दिन ज़िन्दगी के पास बैठे, बात हो जाए
खुदी से यार मिलने का करें आगाज़, आ जाओ



भला ये फ़ासलें क्या है, भला ये कुर्बतें क्या है
बताएँगे छुपे क्या-क्या दिलों में राज़, आ जाओ



हमारे बाद फिर महफिल सजा लेना ज़माने की
तबीयत हो चली यारों जरा नासाज़, आ जाओ



अकीदत में मुहब्बत है सनम मेरा खुदा होगा
अरे दिल हरकतें ऐसी ज़रा सा बाज़ आ जाओ



मरासिम है गज़ब का मौज़ से, साहिल परेशां है
समंदर रेत को आवाज़ दे- ‘हमराज़ आ जाओ’



ख़ुशी ‘मिथिलेश’ अपनी तो हमेशा बेवफा निकली
ग़मों ने फिर पुकारा है- ‘मिरे सरताज़ आ जाओ’

---------------------------------------------
(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर 
---------------------------------------------


बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
अर्कान – मुफाईलुन / मुफाईलुन / मुफाईलुन / मुफाईलुन
वज़्न – 1222 / 1222 / 1222 / 1222

 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 4, 2015 at 5:01pm

आदरणीय अनुराग जी  हौसलाअफजाई के लिए तहे-दिल से शुक्रिया 

आपने जो त्रुटी बताई वो सही है कृपया इसका समाधान भी बताने की कृपा करें फिलहाल मुझे नए काफिया नहीं सूझ रहे है

सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 4, 2015 at 4:58pm

आदरणीय  Hari Prakash Dubey  जी  हौसलाअफजाई के लिए तहे-दिल से शुक्रिया 

Comment by maharshi tripathi on January 4, 2015 at 4:30pm

बहुत ही  सुन्दर  गजल आ.|


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 4, 2015 at 4:07pm

यूँ तो सभी अशआर अच्छे लगें किन्तु मकता ज्यादा पसंद आया, बधाई आदरणीय मिथिलेश जी .

Comment by ram shiromani pathak on January 4, 2015 at 3:37pm
भाई ज़ोरदार ग़ज़ल।।हार्दिक बधाई आपको।।
Comment by कंवर करतार on January 4, 2015 at 1:22pm

 

चमन में फूल खिलने को, शज़र से शाख कहती है 
बहारों अब रहो मत इस कदर नाराज़ आ जाओ

------

भाई मिथिलेश ग़ज़ल लाजवाब है बहुत बधाईI


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on January 4, 2015 at 10:08am

आदरणीय मिथिलेश जी आपकी ये ग़ज़ल भी लाजवाब है बहुत बहुत बधाई
हाँ यहाँ काफ़ियाबंदी के मामले में अनुराग जी से आंशिक रूप से सहमत हूँ आंशिक इसलिये कि यदि हिन्दी भाषी पाठक इस ग़ज़ल को पढ़े तो यहाँ सबकुछ सही है लेकिन उर्दूदां इस पर आपत्ति ले सकते हैं जैसा कि अनुराग जी ने कहा है। क्यूोंकि उर्दू के मुताबिक ज़ाल(ز) ज़्वाद(ض) ज़ो (ظ)जीम( ج) हमकाफिया नहीं हैं। उर्दू में पाँच तरह के ज़ होते हैं। तल्लफुज़ सबका लगभग एक जैसा है फ़र्क कोई उर्दूदां कर सकता है। 

Comment by Dr. Vijai Shanker on January 4, 2015 at 10:02am
ख़ुशी ‘मिथिलेश’ अपनी तो हमेशा बेवफा निकली
ग़मों ने फिर पुकारा है- ‘मिरे सरताज़ आ जाओ’॥
बहुत खूब , बधाई ,आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी, सादर।
Comment by Anurag Prateek on January 4, 2015 at 7:10am

1. सरताज سرتاج,

2. हमराज़ہم راز , बाज़باز ,ना-साज़ناساز ,राज़راز ,आग़ाज़آغاز,    पर्वाज़پرواز,

3. नाराज़ناراض ,

4. अल्फ़ाज़الفاظ

Comment by Anurag Prateek on January 3, 2015 at 8:42pm

 मिथिलेश वामनकर भाई जी 

 बहुत अच्छी ग़ज़ल  हुई है बधाई . पर, ‘आज और सरताज’ काफिया लगता  है यहाँ पर सही नहीं है. विशेष विद्वतजन बताएँगे.  

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