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पहन रख पैरहन, उरियानियाँ अच्छी नहीं लगतीं
कि बद को भी, कभी बदनामियाँ अच्छी नहीं लगतीं
फसादी हो अगर, तो बोलियाँ अच्छी नहीं लगतीं
वहीं बेवक़्त की खामोशियाँ अच्छी नहीं लगतीं
खुला आकाश हो सबका ,परों मे ताब हो सबके
कफस अंदर की ये आज़ादियाँ, अच्छी नहीं लगतीं
भरम रख़्ख़ें वे मौसम का , कहे कोई उन्हें जा कर
कभी बे वक़्त छाई बदलियाँ, अच्छी नहीं लगतीं
चला आया है जुगनू देखिये फिर रोशनी ले कर
इसे तारीक़ हो गर बस्तियाँ अच्छी नहीं लगतीं
ये जीवन है , यहाँ पर जीत भी है हार भी यारों
मगर हर वक़्त की नाकामियाँ अच्छी नहीं लगतीं
उमर पाके बुज़ुर्गों सी , कहोगे तुम भी इक दिन ये
कि सच हो बात, नाफरमानियाँ अच्छी नहीं लगतीं
अगर हो ताब ,हो जिगरा तो बोलो ज़ोर से यारों
ये पीछे पीठ, कानाफूसियाँ अच्छी नहीं लगतीं
कटें पतवार से लहरें मज़ा कुछ और आता है
"हवा के रुख पे चलती किश्तियाँ अच्छी नहीं लगतीं"
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय लक्ष्मण भाई , गज़ल को आपकी सहमति , आपकी सराहना मिली , गज़ल कहना सार्थक हुआ , आपका हार्दिक आभार ।
खुला आकाश हो सबका ,परों मे ताब हो सबके
कफस अंदर की ये आज़ादियाँ, अच्छी नहीं लगतीं
बहुत ही उम्दा ग़ज़ल हुई है आ० भाई गिरिराज जी ,कोटि कोटि बधाई .
आदरणीया राज्श जी , आपकी सराहना मिली , रचना कर्म सार्थक हुआ ! सराहना के लिये आपका बहुत शुक्रिया ।
आदरणीय राहुल भाई , सराहना के लिये आपका आभार ।
आदरणीय मदन मोहन भाई , आपका तहे दिल से शुक्रिया ।
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , आपका आशीष मिला , मन प्रसन्न हुआ , सदा ऐसे ही आशीष बरसाते रहें ।
आदरणीय श्याम नारायण भाई , सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।
वाह्ह्ह्ह वाह्ह्ह बहुत सुन्दर ग़ज़ल लिखी है आ० गिरिराज जी ,
खुला आकाश हो सबका ,परों मे ताब हो सबके
कफस अंदर की ये आज़ादियाँ, अच्छी नहीं लगतीं----कमाल
चला आया है जुगनू देखिये फिर रोशनी ले कर
इसे तारीक़ हो गर बस्तियाँ अच्छी नहीं लगतीं---जबरदस्त
मुझे ये ग़ज़ल बहुत पसंद आई ..ढेरों दाद कबूल कीजिये
वाह , बहुत खूब ग़ज़ल कही है बधाई
खुला आकाश हो सबका ,परों मे ताब हो सबके
कफस अंदर की ये आज़ादियाँ, अच्छी नहीं लगतीं
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