“अरे क्या हुआ ये भीड़ कैसी है, कोई मर गया है क्या ?”
“हाँ यार वो साहब का नौकर, अरे वही यार जो साहब के घर के सारे काम करता था, झाड़ू - पोछा, चूल्हा-चौका ,बर्तन माँजने से लेकर सब्जी-भाजी लाने तक....जिसे साहब गाँव से लेकर आये थे, कहते थे चपरासी रखवा दूंगा डिपार्टमेंट में !”
“ओह वो गूंगा, वो तो बड़ा ही भला था और ठीक-ठाक भी, कैसे मरा ?”
“दोस्त, सब कह रहें हैं आत्महत्या कर ली, पर यार तू बताना मत किसी को, मेमसाहब की चेन चोरी हो गयी थी, कल रात पुलिस भी आई थी, बहुत मारा उसे, पर वह गूंगा नहीं था, उसे अरे-माई, अरे-माई, चिल्लाते हुए मैंने सुना था !”
अच्छा ..कुछ मिला क्या उसके पास ?
“हाँ, साहब का दिया हुआ एक कुरता पायजामा और एक गमछा और उसके माँ- बाप का दिया नाम, ‘कलुआ’ !”
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय विनय कुमार सिंह जी , हार्दिक आभार सादर धन्यवाद !
बहुत मार्मिक लघुकथा | ऐसे मजलूम लोग तो अपना नाम भी कायम नहीं रख पाते और गुमनाम मौत पा जाते हैं |
आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी , लघुकथा को आपकी सहमति , सराहना मिली , आपका हार्दिक आभार !
आदरणीय गिरिराज भंडारी सर आपका आशीर्वाद मिल गया ,रचना सार्थक हुई ! सादर !
आदरणीया अर्चना त्रिपाठी जी, रचना पर आपके समर्थन से बल मिला ,आपका हार्दिक आभार ! सादर !
आदरणीय जवाहर लाल सिंह जी आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार सादर धन्यवाद !
सोमेश भाई उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ ,हार्दिक धन्यवाद !
आभार आदरणीय गुमनाम भाई आपकी सराहना से आत्मिक प्रसन्नता हुई हार्दिक आभार !
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी, आपकी प्रतिक्रिया से उत्साह मिला, आपका बहुत - बहुत धन्यवाद ! सादर
आदरणीय जितेन्द्र पस्टारिया सर , उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद ,आभार सादर !
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