सांस है मुसाफिर.......(एक रचना )
सांस है मुसाफिर इसको राह में ठहर जाना है
जिस्म के पैराहन को जल के बिखर जाना है
दुनिया को मयखाना समझ नशे में ज़िंदा रहे
होश आया तो समझे कि ख़ुदा के घर जाना है
याद किसकी सो गयी बन के अश्क आँख में
धड़कनें समझी न ये जिस्म को मर जाना है
ज़िंदगी समझे जिसे दरहक़ीक़त वो ख़्वाब थी
सहर होते ही जिसे बस रेत सा बिखर जाना है
कतरा-कतरा प्यार में जिस के हम मरते रहे
वो राह को रोके खड़े हैं हमको जिधर जाना है
दर्द ख्वाबों के हमारे कोई भला क्या जानेगा
साथ हस्ती के इन्हें भी ख़ाक में मर जाना है
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय Pari M Shlok जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार।
आदरणीय Rahul Dangi जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार।
आदरणीय जितेन्द्र पस्टारिया जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार।
बहुत सुंदर प्रस्तुति, आदरणीय शुशील जी. बधाई स्वीकारें
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी रचना पर आपकी आत्मीय प्रशंसा का हार्दिक आभार।
आदरणीय Dr. Vijai Shanker जी रचना पर आपकी आत्मीय प्रशंसा का हार्दिक आभार।
आदरणीय Er. Ganesh Jee "Bagi" जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार।
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार।
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