For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

आखिर मैं आज कहाँ हूँ ? (मिथिलेश वामनकर)

वो अलसाया-सा इक दिन

बस अलसाया होता तो कितना अच्छा

 

जिसकी

थकी-थकी सी संध्या

जो गिरती औंधी-औंधी सी

रक्ताभ हुआ सारा मौसम

ऐसा क्यों है.....

बोलो पंछी?

 

ऐसा मौसम,

ऐसा आलम  

लाल रोष से बादल जिसके

और

पिघलता ह्रदय रात का

अपना भोंडा सिर फैलाकर अन्धकार पागल-सा फिरता

हर एक पहर के

कान खड़े है

सन्नाटे का शोर सुन रहे

ख़ामोशी के होंठ कांपते

कुछ कहने को फूटे कैसे ?

किसी पेड़ की टहनी-सा

मैं साथ हवा के हिलडुल लूं

पर

भय से थर-थर काँप रहा हूँ

बाहर-भीतर

एक सरीका

 

वो वीभत्स,

भयंकर दृश्य रचेंगे.... और भी जाने कितना कुछ 

कहाँ किसी का कौन हुआ है?

मेरे भीतर बहने वाला राग

अचानक मौन हुआ है

जलती आँखों को पोछ रहा हूँ

बोलो पंछी......

कुछ तो बोलो

आखिर मैं कहाँ हूँ ?

 

-------------------------------------------------

संशोधित कविता  - तुकांत

----------------------------------------------------

वो अलसाया-सा इक दिन,

बस अलसाया होता तो कितना अच्छा

पर अवसाद मिले अनगिन.

 

संध्या जिसकी थकी-थकी सी, जो गिरती औंधी-औंधी सी

रंगत नभ की रक्ताभ हुई, ऐसा क्यों है.... बोलो पंछी?

 

लाल रोष से बादल कितना, और पिघलता ह्रदय रात का

सिर फैलाकर अपना भोंडा, अन्धकार पागल-सा फिरता

 

कान खड़े हर एक पहर के, सन्नाटे का शोर सुन रहे,

ख़ामोशी के होंठ कांपते, कुछ कहने को फूटे कैसे ?

 

किसी पेड़ की टहनी-सा झर, साथ हवा के हिलडुल लूं पर

काँप रहा हूँ भय से थर-थर, एक सरीका बाहर-भीतर

 

वीभत्स, भयंकर दृश्य रचा है, कहाँ किसी का कौन हुआ है?

भीतर था जो, कहाँ छुपा है, राग अचानक मौन हुआ है

 

जलती आँखे पोछ रहा हूँ

पूछ रहा हूँ, बोलो पंछी...कुछ तो बोलो

आखिर मैं आज कहाँ हूँ ?

 

-------------------------------------------------------------

(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर  

-------------------------------------------------------------

Views: 1073

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Hari Prakash Dubey on January 26, 2015 at 11:57am

आदरणीय मिथिलेश जी ,मूल रूप में ही रचना मैं आनंद आ रहा था , यह भी अच्छी है , कई बार ऐसे परिवर्तन करने पडते हैं , फिर कही किसी बिंदु पर संतुष्टि मिलती है ! सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 26, 2015 at 8:06am

आदरणीय शिज्जु भाई जी रचना पर उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 26, 2015 at 8:04am

आदरणीय सौरभ सर, कविता के मूल रूप पर आपकी टिप्पणी की प्रतीक्षा थी, सकारात्मक प्रतिक्रिया, मार्गदर्शन और अनुमोदन पाकर अभिभूत हूँ. इस कविता के मूल रूप के प्रति आसक्ति के चलते ही मैंने उसे टिप्पणी बॉक्स में संधारित कर लिया था. मैं स्वयं मूल रूप में ही रचना को अधिक सहज और पूर्ण पा रहा था. आपने अपनी कविता का जो सन्दर्भ दिया है वह कविता भी मैंने आपके काव्य संग्रह  "इकड़ियाँ जेबी से" पृष्ट 22-23 में पढ़ चूका हूँ. (टिप्पणी में सन्दर्भ के लिए अभी पुनः पढ़ी)

वो एक है 

जो मौन सी 

मन के धुएँ के पार से 

नम आस की उभार सी 

ठिठकन की गोद में पड़ी 

बेबसी की मूर्त रूप सहम-सहम के बोलती-

'पापा जल्दी...

ना, पापा जरुर आ जाना.....'

रचना पर आपकी उपस्थिति से ही सदैव उत्साह मिलता है. नमन 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on January 26, 2015 at 7:18am


आदरणीय मिथिलेश जी आपका रचनाकर्म सदैव आह्लादित करता है, आपकी हर रचना से कुछ न कुछ सीखने को मिलता है। बहुत सुंदर रचना हुई है बहुत बहुत बधाई आपको


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 26, 2015 at 1:21am

इस रचना को मूल रूप में भी देखा हमने और इसके संशोधित रूप को भी देखा. इस अतुकान्त रचना की पंक्तियों में जो प्रवाह है उसे रचना की अंतर्गेयता कहते हैं. ऐसी रचनायें कथ्य के शाब्दिक होने में एक सीमा तक मात्रिकता का निर्वहन करती हैं. मुझे इस कविता का मूल स्वरूप ही रुचिकर लगा है.
मंच के सदस्यों को मेरी एक रचना याद होगी जिसका समापन ’पापा जल्दी.. ना, पापा जरूर आ जाना..’ से होता है. वह रचना इस मंच के ही ’चित्र से काव्य तक’ में प्रस्तुत हुई रचना थी. तब यह आयोजन ’छन्दोत्सव’ में परिणत नहीं हुआ था. वह कविता भी इसी शैली की कविता थी.
आदरणीय मिथिलेशभाई को उनके सतत प्रयास के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ. आप प्रयासरत रहें. बहुत कुछ सधता चलेगा.
शुभेच्छाएँ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 26, 2015 at 12:41am

मूल कविता

------------------------

वो अलसाया-सा इक दिन

बस अलसाया होता तो कितना अच्छा

 

जिसकी

थकी-थकी सी संध्या

जो गिरती औंधी-औंधी सी

रक्ताभ हुआ सारा मौसम

ऐसा क्यों है.....

बोलो पंछी?

 

ऐसा मौसम,

ऐसा आलम  

लाल रोष से बादल जिसके

और

पिघलता ह्रदय रात का

अपना भोंडा सिर फैलाकर अन्धकार पागल-सा फिरता

हर एक पहर के

कान खड़े है

सन्नाटे का शोर सुन रहे

ख़ामोशी के होंठ कांपते

कुछ कहने को फूटे कैसे ?

किसी पेड़ की टहनी-सा

मैं साथ हवा के हिलडुल लूं

पर

भय से थर-थर काँप रहा हूँ

बाहर-भीतर

एक सरीका

 

वो वीभत्स,

भयंकर दृश्य रचेंगे.... और भी जाने कितना कुछ 

कहाँ किसी का कौन हुआ है?

मेरे भीतर बहने वाला राग

अचानक मौन हुआ है

जलती आँखों को पोछ रहा हूँ

बोलो पंछी......

कुछ तो बोलो

आखिर मैं कहाँ हूँ ?


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 25, 2015 at 2:44pm

आदरणीय बागी सर, रचना पर सराहना के लिए हार्दिक आभार. आपकी सकारात्मक  प्रतिक्रिया से रचनाकर्म को सदैव बल मिलता है.


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 25, 2015 at 2:33pm

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी, मुझे आपकी यह प्रस्तुति अच्छी लगी, बहुत बहुत बधाई.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 25, 2015 at 2:01pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी अतुकांत कविता पर प्रथम प्रयास है. रचना की सराहना और स्नेह के लिए नमन.

आपने सही कहाँ अतुकांत में तुकांतता  ढूंढी गई . रचना अतुकांत के पैमाने पर असफल हो रही है. पहली बार बड़े जोर शोर से प्रयास किया था किन्तु सफल नहीं हो सका. अब लग रहा है आपके मार्गदर्शन अनुसार ' इसमें तुकांतता अवश्य ढूंढें होंगे यदि आगे भी होती तो सोने पे सुहागा होता' रचना में संशोधन कर लूँगा. बस अतुकांत शैली पर  आदरणीय सौरभ सर की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 25, 2015 at 1:52pm

आदरणीय सोमेश भाई जी अतुकांत के प्रथम प्रयास पर सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य कार्यकारिणी
शिज्जु "शकूर" replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-179
"खुद ही अपनी ज़िन्दगी दुश्वार भी करते रहे दोस्तों से गैर सा व्यवहार भी करते रहे धर्म-संकट से बचाना…"
4 hours ago
Tilak Raj Kapoor replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-179
"आपकी ग़ज़ल में रदीफ़, काफ़िया और बह्र की दृष्टि से प्रयास सधा हुआ है। इसे प्रशंसनीय अभ्यास माना जा…"
8 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-179
"सादर , अभिवादन आदरणीय।"
9 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-179
"नफ़रतों की आँधियों में प्यार भी करते रहे।शांति का हर ओर से आधार भी करते रहे।१। *दुश्मनों के काल को…"
9 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-179
"जय-जय"
10 hours ago
Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-179
"स्वागतम"
10 hours ago
Nilesh Shevgaonkar commented on Saurabh Pandey's blog post गजल - जा तुझे इश्क हो // -- सौरभ
"आ. सौरभ सर श्राप है या दुआ जा तुझे इश्क़ हो मुझ को तो हो गया जा तुझे इश्क़ हो..इस ग़ज़ल के…"
14 hours ago
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की- लगती हैं बेरंग सारी तितलियाँ तेरे बिना
"धन्यवाद आ. नाथ जी "
14 hours ago
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की- लगती हैं बेरंग सारी तितलियाँ तेरे बिना
"धन्यवाद आ. विजय जी "
14 hours ago
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की- लगती हैं बेरंग सारी तितलियाँ तेरे बिना
"धन्यवाद आ. अजय जी "
14 hours ago
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की- लगती हैं बेरंग सारी तितलियाँ तेरे बिना
"धन्यवाद आ. लक्ष्मण जी "
14 hours ago
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की- लगती हैं बेरंग सारी तितलियाँ तेरे बिना
"धन्यवाद आ. समर सर. पता नहीं मैं इस ग़ज़ल पर आई टिप्पणियाँ पढ़ ही नहीं पाया "
14 hours ago

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service