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दोपहर में घंटी बजने पर उसने दरवाजा खोला तो वो दरिंदा जबरदस्ती अंदर घुस आया और उसकी अस्मिता को तार तार कर गया | अब शरीर तो जिन्दा बच गया लेकिन आत्मा बुरी तरह लहूलुहान थी | एक ऐसा हादसा जिसके लिए जिम्मेदार वो नहीं थी लेकिन भुगतना उसी को था |
पति ने आने पर जब सँभालने की कोशिश की तो उसे झटक कर वह जोर से रो पड़ी , शायद अब वो किसी पुरुष पर भरोसा नहीं कर पाएगी | एक वहशी की गलती की सज़ा अब पूरे पुरुष समाज को भुगतनी होगी |

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मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by विनय कुमार on February 4, 2015 at 7:04pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय जितेन्द्र पस्टारिया जी .

Comment by मोहन बेगोवाल on February 4, 2015 at 6:42pm

 ऐसे विषय में रचना करना जोखम का काम है , मगर रचना में अक्सर वो ही विचार आते है , जो हमारे आस पास होते है , रचना को वो हिस्सा भी होना चाहिए , जिस की बदोलत सब कुह होता , बाकी रचना के लिए धन्यवाद 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 4, 2015 at 4:54pm

बहुत बेहतर लघुकथा, आदरणीय विनय जी. हार्दिक बधाई

Comment by विनय कुमार on February 4, 2015 at 12:16pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय विश्व राज राठोड जी ..

Comment by विनय कुमार on February 4, 2015 at 12:15pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय गणेश जी बागी जी..

Comment by विनय कुमार on February 4, 2015 at 12:15pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय डॉ विजय शंकर जी , कभी कभी किसी को बिना किसी गलती के भी सजा भुगतनी पड़ती है और कभी कभी किसी एक की गलती की सजा पूरा समाज भुगतता है..


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 4, 2015 at 10:58am

अच्छी लघुकथा, सन्देश स्पष्ट है, बधाई आदरणीय विनय कुमार जी.

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 4, 2015 at 10:20am
" एक वहशी की गलती की सज़ा अब पूरे पुरुष समाज को भुगतनी होगी | "
यही न्याय रह गया है , बाकी न्याय तो बस में ही नहीं रह गया है ।
बधाई, आदरणीय विनय कुमार जी, सादर ।

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