“ हे. भगवान..बस! एक पोते की कामना थी, वो भी पूरी नहीं हो पाई इस बार. तीन-तीन पोतियों की लाइन लग गई ” अपनी बहु के कमरे से बाहर, खले की ओर जाते हुए मन में बडबडा ही रही थी, कि
“ माँ!! मैं बाजार जा रहा हूँ, कुछ लाना हो बता दो ” बेटे ने पूछा
“ हाँ! बेटा.. गुड़ ले आना, वो बूढी गाय न जाने कब जन जाए, अब की बार बछिया ले आये तो आगे भी घर का दूध मिल जाया करेगा “
जितेन्द्र पस्टारिया
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Comment
आपकी उत्साहवर्धक सराहना हेतु ह्रदय से आभारी हूँ, आदरणीय गिरिराज जी. स्नेह बनाए रखियेगा
सादर!
लाजवाब , दोहरी मानसिकता को खूब बयान किया है ! दिली बधाइयाँ ।
आदरणीय सोमेश भाई जी, आपका ह्रदय से आभार. स्नेह बनाये रखियेगा
सादर!
आदरणीय मिथिलेश जी. आपकी विस्तृत उत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया से लेखनी को मनोबल, लघुकथा को सार्थकता का प्रमाण मिला. आपका ह्रदय से आभारी हूँ, स्नेह बनाये रखियेगा
सादर!
आपका बहुत-बहुत आभार, आदरणीय विनय जी.
सादर!
आदरणीय शरदिंदु जी. आपकी सराहना व् शुभकामनायें सहर्ष स्वीकार हैं, स्नेह बनाये रखियेगा
सादर!
सुंदर लक्ष्यभेदी लघुकथा ,हार्दिक बधाई
आदरणीय जितेन्द्र पस्टारिया जी उत्कृष्ट और सफल लघुकथा. मंच पर प्रस्तुत श्रेष्ट लघुकथाओं में से एक. पंच लाइन अपना कमाल पूरे प्रभाव से दिखाती है. इतने कम शब्दों में मूल भाव का तड़ाक से उभर आना ही इस लघुकथा को सफल बनाता है. इस लघुकथा के लिए हृदय से बधाई स्वीकारें. एक एक शब्द जड़ा हुआ और हर वाक्य गठा हुआ.
सुन्दर लघुकथा आदरणीय जीतेन्द्र पस्तारिआ जी , बधाई..
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