धीमी-धीमी सी
हवाओं में
दीपों की टिमटिमाती लौ
दे जाती है
अंतर को भी रोशनी
बे-समय आँधियों ने
कब किया है, रोशन
बस! बुझा दिया
या फूंक दिए है जीवन
उन्ही दीपों से.
अथाह तेज बारिशों ने भी
बहा दिए हैं, जीवन
नदियों के मटमैले
जल से
प्यासा, प्यासा ही रहा
वैसे ही, जैसे
वैशाख-ज्येष्ठ की धूप में
बैठा हो
शुष्क किनारों पर
जीवन को तो
उतनी ही हवा
मिलती रहे
जब तक अंदर
ली हुई..सांसें
बाहर न निकल आयें
प्यासे को भी तो
मिली है, तृप्ति
कल-कल करती
नदियों से
न अल्प
और न ही अधिक
फिर क्यों..?
असंतुष्ट है
समानता ही जीवन है, तो
संतुष्टि कहाँ है...?
जितेन्द्र पस्टारिया
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Comment
आपकी सराहना के लिए ह्रदय से आभार, आदरणीय सोमेश जी
सादर!
जीवन को कितना चाहिए ,इसका सुंदर विचार-मंथन ,बधाई इस चिंतनपूर्ण रचना पर
सराहना हेतु आपका ह्रदय से आभारी हूँ , आदरणीय डा.आशुतोष जी
सादर!
आपकी उत्साहवर्धक सराहना के लिए, आपका बहुत-बहुत आभार आदरणीया प्रतिभा जी.
सादर!
आदरणीय जीतेन्द्र जी ,,बहुत ही उम्दा रचना है ..चिंतन के लिए बिबश करती रचना ..इस शानदार रचना के लिए तहे दिल बधाई सादर
आपका बहुत-बहुत आभार, आदरणीया सविता जी
सादर!
आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु आपका ह्रदय से आभारी हूँ, आदरणीय हरिप्रकाश जी.
सादर!
रचना पर आपकी उपस्थिति व् सराहना के लिए, ह्रदय से आभार आदरणीय मिथिलेश जी.
सादर!
बहुत खुबसुरत
आदरणीय जितेन्द्र पस्टारिया जी , .....
जीवन को तो
उतनी ही हवा
मिलती रहे
जब तक अंदर
ली हुई..सांसें
बाहर न निकल आयें......वाह , बहुत शानदार ,हार्दिक बधाई आपको !
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