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कभी जिन्दगी को जिया होता
ख़ुदा का अदा शुक्रिया होता
मुकम्मल नई इक ग़ज़ल होती
अगर अश्क़ हँस के पिया होता
फ़लक चूमता ये कदम तेरे
कोई काम ऐसा किया होता
बिखरती न गिरती दुआ रब की
अगर चाकदामन सिया होता
कई रास्ते खुल गए होते
किसी का कभी गम लिया होता
कहाँ काटता यूँ अकेलापन
किसी को सहारा दिया होता
है क्या जीस्त खानाबदोशों की
ठिकाना न जिनका ठिया होता
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आ० हरि प्रकाश जी,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ ,इस उत्साह वर्धन करती प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल से आभारी हूँ.
आदरणीया राजेश कुमारी जी सुन्दर रचना हार्दिक बधाई ये पंक्तियाँ विशेष प्रभावित कर रही हैं ..
.// है क्या जीस्त खानाबदोशों की
ठिकाना न जिनका ठिया होता//... ! सादर
आ० खुर्शीद जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सफल हुआ इस होंसलाफ्जाई का तहे दिल से शुक्रिया .
फ़लक चूमता ये कदम तेरे
कोई काम ऐसा किया होता
बिखरती न गिरती दुआ रब की
अगर चाकदामन सिया होता
आदरणीया राजेश कुमारी जी ,उम्दा ग़ज़ल हुई है |सादर अभिनन्दन |
जितेन्द्र भैया ,आपको ग़ज़ल पसंद आई ,तहे दिल से शुक्रिया.
सोमेश भैया,इस होंसलाफ्जाई का तहे दिल से शुक्रिया.
आ० श्याम नारायण वर्मा जी ,तहे दिल से शुक्रिया
मिथिलेश वामनकर जी,ग़ज़ल आपको पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ हार्दिक आभार
सर्वेश कुमार जी बहुत- बहुत शुक्रिया.
आ० डॉ० विजय शंकर जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ बहुत बहुत शुक्रिया.
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