धीमी-धीमी सी
हवाओं में
दीपों की टिमटिमाती लौ
दे जाती है
अंतर को भी रोशनी
बे-समय आँधियों ने
कब किया है, रोशन
बस! बुझा दिया
या फूंक दिए है जीवन
उन्ही दीपों से.
अथाह तेज बारिशों ने भी
बहा दिए हैं, जीवन
नदियों के मटमैले
जल से
प्यासा, प्यासा ही रहा
वैसे ही, जैसे
वैशाख-ज्येष्ठ की धूप में
बैठा हो
शुष्क किनारों पर
जीवन को तो
उतनी ही हवा
मिलती रहे
जब तक अंदर
ली हुई..सांसें
बाहर न निकल आयें
प्यासे को भी तो
मिली है, तृप्ति
कल-कल करती
नदियों से
न अल्प
और न ही अधिक
फिर क्यों..?
असंतुष्ट है
समानता ही जीवन है, तो
संतुष्टि कहाँ है...?
जितेन्द्र पस्टारिया
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय जितेन्द्र पस्टारिया जी बहुत गूढ़ भावो से सजी हुई बेहतरीन रचना. हार्दिक बधाई
आदरणीया राजेश दीदी. अभिव्यक्ति पर आपकी सराहना व् स्नेहिल उत्साहवर्धन हमेशा मन को ख़ुशी और लेखनकर्म को मनोबल देता रहा है. स्नेह व् आशीर्वाद यूँही बनाए रखियेगा
सादर!
आपकी बधाई शिरोधार्य है, आदरणीय बागी जी. रचना पर आपकी स्नेहिल उपस्थिति और सराहना के लिए हृदयतल से आभारी हूँ, स्नेह बनाए रखियेगा
सादर!
जीवन को तो
उतनी ही हवा
मिलती रहे
जब तक अंदर
ली हुई..सांसें
बाहर न निकल आयें---वाह्ह बहुत सुन्दर गहन पंक्तियाँ ,सबको पता है चादर उतनी लेनी चाहिए जितनी में पैर ढक जाएँ ,किन्तु अमल कौन करता है ..क्यूंकि मन में संतुष्टि ही नहीं है ....बहुत सुन्दर रचना ..हार्दिक बधाई जितेन्द्र भैय्या
सचमुच अचंभित हूँ, आपकी कलम से निकली इस स्तर की कोई पहली अतुकांत रचना मैं पढ़ रहा हूँ, इस भावाभिव्यक्ति हेतु ढेरों बधाई आदरणीय जितेन्द्र जी.
आपका आशीर्वाद व् बधाई, सहर्ष स्वीकार है आदरणीय डा.विजय जी.
सादर!
रचना पर आपकी उपस्थिति व् सराहना हेतु आपका हार्दिक आभार, आदरणीय खुर्शीद साहब.
सादर!
उत्साहवर्धन हेतु आपका आभार, आदरणीय श्याम नारायण जी
सादर!
आदरणीय गिरिराज जी.रचना की सराहना व् स्नेहिल मार्गदर्शन //संतुष्टता को संतुष्टि करना अच्छा लगेगा// हेतु आपका ह्रदय से आभारी हूँ.
सादर!
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