क्या तुम्हें मालूम है
मुझे हरवक्त तुम्हें ,मेरे साथ होने का
अहसास रहता है
कि कहीं दूर से ही तुम मुझे कोई सहारा दे रही हो
मगर अबकी बार तुमसे मिलकर
मेरा वह अहसासों भरा विश्वास टूटता नजर आया
क्या तुम खुदको मुझसे दूर ले जाना चाहती हो
या दूर ले जा चुकी हो
बहुत दूर
मुझे तुम्हारी हर राहे मुकाम पर
जरूरत होगी
उस वक्त एक सूनापन
मेरे चेतन को अवचेतन करेगा
मेरे सोचने की शक्ति क्षीण हो जायेगी
मेरा शरीर सुन्न होने लगेगा
मेरी धमनियों में धीरे धीरे दौड रही
रक्त की बूँदें
बहुत धीमें स्वरों में तुम्हें पुकारेंगी
क्या तुम सुन पाओगी
उस वक्त का मेरा बिरह-विलाप
नहीं शायद ये सम्भव न होगा
उस आखिरी मुकाम पर पहुँचकर
मेरी पहाडों जैसी बंजड़ आँखें
समन्दर जैसी बेचैन हो उठेंगी
और मेरे चारों तरफ इकट्ठी भीड में
तुम्हें खोज रही होंगी
क्या तुम आ पाओगी
नहीं शायद ये सम्भव न होगा
मेरी खुली हुयी प्यासी पलकों को
अपनी नर्म-नाजुक हथेलियों से
हमेशा हमेशा के लिये
बन्द करने ।।
उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया साहब
अंतर्भावों को सुंदर शब्द मिले. बधाई आदरणीय उमेश जी
Er. Ganesh Jee "Bagi" जी शुक्रिया
अच्छी अतुकांत रचना आप प्रस्तुत किये हैं आदरणीय उमेश कटारा जी, बधाई स्वीकार करें. साथियों की रचनाएँ आपकी बहुमूल्य टिप्पणी हेतु ललायित हैं.
डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी शुक्रिया
मिथिलेश वामनकर जी शुक्रिया
आदरणीय उमेश कटारा जी भावपूर्ण बेहतरीन कविता के लिए हार्दिक बधाई
कटारा जी
बहुत बढ़िया i भावपूर्ण कविता i
Hari Prakash Dubey जी शुक्रिया
maharshi tripathi जी शुक्रिया
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