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हमें इज़ाज़त मिले ज़रा हम नई सदी को निकल रहे है
जवाँ परिंदे उड़ानों की अब, हर इक इबारत बदल रहे हैं।*
गुलाबी सपने उफ़क में कितने मुहब्बतों से बिखर गए है
नया सवेरा अज़ीम करने, किसी के अरमां मचल रहे है।
मिले थे ऐसे वो ज़िन्दगी से, मिले कोई जैसे अजनबी से
हयात से जो मिली है ठोकर जरा - जरा हम संभल रहे है।
अजीब महफ़िल, अजीब आलम, अजीब हस्ती, अजीब मस्ती
किसी के अहसास पल रहे है किसी के ज़ज्बात जल रहे है।
बुजुर्गों अपनी ‘नसल’ पे तुम भी यकीन इतना जुरूर रखना
बड़े अदब से औ एहतियातन जमाना हम तो बदल रहे है।
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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर
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* आदरणीय गिरिराज सर द्वारा सुझाये संशोधन पश्चात् मिसरा.
Comment
आदरणीय गिरिराज सर, अगर मिसरा-ए-सानी ऐसा पढ़ा जावे तो कैसा रहेगा...
हमें इज़ाज़त मिले ज़रा हम नई सदी को निकल रहे है
उड़ानों की दर - असल इबारत जवां परिंदे बदल रहे है।
आदरणीय गिरिराज सर, रचना पर आपका स्नेह सदा से मिलता रहा है, जो सदैव मुझे लिखने के लिए प्रेरित करता रहा है. ग़ज़ल पर आपकी सराहना और सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभारी हूँ. हार्दिक धन्यवाद. नमन
आपने सही कहा शिकश्ते नारवां का दोष तो नही आ रहा है ... इसे मैं सुधार नहीं पा रहा हूँ....
आदरणीय मिथिलेश भाई , बहुत बढिया गज़ल हुई है , आपकी मेहनत रंग लायी है , दिली मुबारक़बाद कुबूल करें ॥
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जवां परिंदे / उड़ानों की दर /- असल इबारत / बदल रहे है। --- इस मिसरे में देखियेगा शिकश्ते नारवां का दोष तो नही आरहा है ? मै निश्चित नहीं हूँ पर पढ़ने में रुकावट महसूस कर रहा हूँ , दर को असल से अलग पढ़ना पड़ रहा है ॥
बुजुर्गों अपनी ‘नसल’ पे तुम भी यकीन इतना जुरूर रखना
बड़े अदब से औ एहतियातन जमाना हम तो बदल रहे है -- ये शे र बहुत पसंद आया भाई मिथिलेश , बधाई ॥
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर ग़ज़ल पर आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया और स्नेह के लिए नमन.
बुजुर्गों अपनी ‘नसल’ पे तुम भी यकीन इतना जुरूर रखना
बड़े अदब से औ एहतियातन जमाना हम तो बदल रहे है।
ये मक्ता नहीं है ... आखिरी शे'र है, दरअसल नस्ल का वज्न 21 होता है और मैंने प्रचलित व्यावहारिक भाषा के नसल का प्रयोग वज्न 12 किया है इसलिए उसे इनवर्टेड कॉमा में रखा है. वैसे इसे वाक्य विन्यास बदल के 21 के वज्न पर रख सकता था पर इसे इसी रूप में प्रयोग करना चाह रहा था. परिवर्तित कुछ यूं होता - बुजुर्गों नस्लों पे आज अपनी यकीन इतना जुरूर रखना
आदरणीय जितेन्द्र पस्टारिया जी ग़ज़ल पर आप जैसे संजीदा रचनाकार की सकारात्मक और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया पाकर आनंदित हूँ, आपके स्नेह और सराहना के लिए हृदय से आभारी हूँ. हार्दिक धन्यवाद
आदरणीय डॉ विजय शंकर सर, ग़ज़ल पर आपकी सराहना, स्नेह और सकारात्मक प्रतिक्रिया पाकर मन को संतोष हुआ कि रचना आपको पसंद आई. मतले के विषय पर आपकी पंक्तियों ने रचना का मान बढ़ा दिया. इस उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ. नमन
बुजुर्गों अपनी ‘नसल’ पे तुम भी यकीन इतना जुरूर रखना
बड़े अदब से औ एहतियातन जमाना हम तो बदल रहे है।------kyaa maktaa hai
इस पुरसर गजल् के लिए सलाम i
आदरणीय हरि प्रकाश दुबे भाई जी आपकी सराहना और सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए आभार, हार्दिक धन्यवाद
हमें इज़ाज़त मिले ज़रा हम नई सदी को निकल रहे है
जवां परिंदे उड़ानों की दर - असल इबारत बदल रहे है।.......वाह! बहुत सुंदर. बेमिसाल मतला
मिले थे ऐसे वो ज़िन्दगी से, मिले कोई जैसे अजनबी से
हयात से जो मिली है ठोकर जरा - जरा हम संभल रहे है।....यह अशआर बहुत पसंद आया. दिली बधाई स्वीकारें आदरणीय मिथिलेश जी
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