212 / 1222 / 212 / 1222 |
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वाकिया हुआ कैसे बाद ये जमानों के |
मस्ज़िदी भजन गाये मंदिरी अजानों के |
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हौसला चराग़ों का यूं चला तबीयत से |
ढंग ही बदल देगा रात की दुकानों के |
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यूं बुलंदियों में है तीरगी बराबर से |
बू-ए-खूं है आँगन में संदली मकानों के |
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इक परिन्दा पागल-सा, बैठ के मुंडेरों पे |
मायने बताता है, बारहा उड़ानों के |
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यूं तसल्लियाँ मेरी आज भी मुनासिब है |
इम्तहाँ वो क्या लेंगे मेरे इत्मिनानों के |
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क्यूं कहूं कसीदा मैं, शान में समंदर की |
गीत गुनगुनाता हूँ बूँद की उठानों के |
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दोसती दिखाते है दुश्मनी निभाते है |
हम हुनर बताते है आज के सयानों के |
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क़र्ज़ की तिजारत में आसरा बचा लो तुम |
यार खूब देखे है हस्र आशियानों के |
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बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन अशतर: |
अर्कान – फ़ाइलुन / मुफ़ाईलुन / फ़ाइलुन / मुफ़ाईलुन |
वज़्न – 212 / 1222 / 212 / 1222 |
Comment
आदरणीय मिथिलेश भाई , बढिया बहर मे बढिया ग़ज़ल कही है । पढ के मज़ा आ गया । दिली मुबारक बाद कुबूल करें ॥
कुछ सामान्य सलाह --
1- ढंग ही बदल डाला रात की दुकानों के -- , कैसा लगेगा ?
2 -खूने-बू - की जगह - बू ए खूँ -- कहना जियादा सहीं लगेगा
3 - पूछता मुझे तासिर पंख की उड़ानों के --- ये मिसरा बे बहर है , और सही हर्फ , तासीर है ( 221 ) , पंख ( 21 )
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