आहत युग का दर्द चुराने आया हूं
बेकल जग को गीत सुनाने आया हूं
कोमल करुणा भूल गये पाषाण हुये
दिल में सोये देव जगाने आया हूं
आँगन आँगन वृक्ष उजाले का पनपे
दहली दहली दीप जलाने आया हूं
ग़ालिब तुलसी मीर कबीरा का वंशज
मैं भी अपना दौर सजाने आया हूं
दिल्ली बतला गाँव अभावों में क्यूं है
नीयत पर फिर प्रश्न उठाने आया हूं
सिस्टम इतना भ्रष्ट हुआ, जिंदा होकर
इसके दस्तावेज़ जुटाने आया हूं
सावन हारे जिस दावानल के आगे
अश्कों से वो आग बुझाने आया हूं
आज़ादी के उत्सव में क्यूं लगता है
बरबादी का जश्न मनाने आया हूं
दिल की बस्ती तुझ बिन उजड़ी लगती है
यादों का इक गाँव बसाने आया हूं
भावों के इस उजड़े मरुथल में फिर से
ग़ज़लों का इक बाग़ लगाने आया हूं
मैं ‘खुरशीद’ गगन के माथे पर छितरा
शब का काला जाल हटाने आया हूं
मौलिक व अप्रकाशित
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आज़ादी के उत्सव में क्यूं लगता है
बरबादी का जश्न मनाने आया हूं
....आपका गजलों का विद्यार्थी बनने का मन होता है,आदरणीय प्रणाम है आपको!
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