बहिष्कार
“क्यों री आंनद की अम्मा ?अपनी देवरानी को शादी में नहीं बुलाईं क्या ?”निमन्त्रण पत्र पकड़ते हुए भोली की अम्मा यानि मायादेवी ने पूछा
“आपकी भी तो जेठानी लगती हैं |आपहि कौन उन्हें रामायण में बुलाई रहीं !” बिंदियादेवी ने मुँह बनाते हुए कहा
“हमार कौन सगी है,ऊपर से काम ही ऐसा करी हैं कि उन्हें बिरादरी से बहिरिया देना चाहिए |अपनी लड़की ही काबू में नहीं |पता नहीं कहाँ से मुँह काला कर आई |”
“हाँ दीदी ,सुना है चौका बाज़ार में बदरी बनिया के बेटे का काम था |जात-बिरादरी का भी ख्याल नहीं था कलमुंही को - - - 15 साल की लड़की पूरी घर-बिरादरी को कलंक लगा दी |अगर ऐसा काम करना भी था तो कम से कम कौनों उपाय कर लेती या बोल देती तो शादी करवा देते |उसके चलते हमारे बच्चों की भी दुर्गति हो रही है |”
“कुछ नहीं बहन सब उस रांड का काम है |बसंतु क्या गुजरा सब शर्म-लिहाज़ छोड़ दी |बेचारा एडस से मरा |सुना है इ रोग एक-दुसरे के साथ सोने से - - -- उ बेचारा महिना-महिना भर ट्रक चलाता था उस पर क्या इतनी फुर्सत रही होगी? ज़रूर कहीं से यही ये रोग लाई होगी | अब भी देख लो जेठ देवर ससुर मजूर किसी का लिहाज़ नहीं है |घर-खेत-बाज़ार हर जगह बिना सिर के पल्लू घुमती रहती है |इस उमर में लौंडिया बनने का शौक चर्राया है |अब जैसी माँ होगी बेटी पर भी तो वही रंग ना लगेगा |”
सही कहा जीजी |देखिए तो हमारे मोहन पर लांछन लगाई थीं कि उस कलमुंही के साथ जबरी किया था |बताओ कि क्या 16-17 का लड़का बिना उकसाए ऐसा काम करेगा |हमार बचवा इतना पतित नहीं हुआ कि अपनी बहन-बिटियन संग ऐसा करे |
“पर ई बात तो तुम्हारी सबसे छोटी देवरानी उठाई रहीं ना !”
“दीदी ,भुला रही हो कि भसुर जी जब बिटिया की शादी के दिन भागे रहे तो इहे बात सुनाई देत रहे कि उनका बम्बई में कौनों- - - - -“बिंदियादेवी ने व्यंग्य कसते हुए कहा
“का बक रही है ! तेरा मोहन तो अपनी चाची को भी नहीं बक्शा |उहे कह रही थी कि जब सोई थी तो कपड़ा में हाथ डालत रहा |”मायादेवी ने झल्लाकर कहा
“उ छिनार इनता ही सावित्री रही त काहे उहे समय नाम नहीं बताई |”
“जाने दो,सारा गाँव जानता है कि उस समय तुम्हारे घर के आंगन में केवल एक ही लड़का सो रहा था |ऐसे लोग तो माँ-बहिन को भी कुछ नहीं गुनते”
“अरी जाओ ना !तुम्हारी बिटियन का भी खूब किस्सा सुने हैं |कालेज में लड़कन के साथ इहाँ-उहाँ करती हैं |सब खबर पाते हैं |और तुम इतना ही योग्य होती तो भईया जी ऐन बिटिया की शादी पर नहीं भागते |”
एS- - --,छिनार,घर-परिवार के बारे में एको लफ्ज़ निकाली त जबान निकाल लेंगे |”
“काहे तुम्हारी इज्जत-इज्जत है औरों कि कुछ नहीं |अब एको लफ्ज़ हमारे ख़िलाफ़ बोलीं तो सारा लिहाज़ भूल जाएँगे और टाँग पकड़कर चीर देंगे |”
बात बढ़ते-बढ़ते हाथापाई तक पहुँच जाती है |
तेरे जैसो के घर का न्यौता तो दूर पानी पीना भी कालिख में कूदना है |
निमन्त्रण पत्र फाड़ते हुए –“तू नहीं आएगी तो क्या हमार बेटा को हल्दी नहीं लगेगी |हमें हमारी देवरानी के ख़िलाफ़ भड़का रही थी |कोई नौयते या ना नौयते हम तो ज़रूर बुलाएँगे उसे ”
सारा गाँव खड़ा ये तमाशा देख रहा था |इसमें बाबु मोहन सिंह भी थे जिन्होंने बिगड़ैल और छैलामिजाज़ बेटे को ठीक करने के लिए शादी का अंतिम हथियार प्रयोग किया तथा अपना खेत गिरवी रख दिया परंतु बसंत सिंह के परिवार का बहिष्कार किया और इसमें मा.आदित्यनाथ भी थे जिन्होंने सब बातों को दरकिनार रख उस परिवार को ससम्मान अपने घरेलू उत्सव में बुलाया और उस बच्ची के लिए योग्यवर तलाशने और उस परिवार को इस खोखले बहिष्कार से बचाने में लगे हुए हैं |
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
गुनीजनो की विश्लेषात्मक प्रतिक्रिया और मार्गदर्शन पर साधुवाद |कहानी के मूल भाव को बदले बिना इसकी भाषा को कैसे संतुलित किया जाए ?इसका कुछ मार्गदर्शन मिलता तो समझना आसान रहता |
आदरणीय सोमेश भाई जी , कहानी के माध्यम से आपने एक कडवे सच को साझा करना चाहा है किन्तु बहुत उलझी हुई सी कहानी कही. आदरणीय बागीजी, आदरणीय डा. गोपाल जी के निर्देशों से सहमती रखता हूँ.
सादर!
प्रिय सोमेश
आप इस युग के नवीन हस्ताक्षर है i आपके प्रश्न भी सामयिक है और ऐसी वर्जना भी नहीं है i आप यदि ऐसे नंगे सच पर लिखे तो भाषा पर संयम बेहद लाजिमी है i मैं आपकी कहानी का एक संवाद उद्धृत करता हूँ - उहे कह रही थी कि जब सोई थी तो कपड़ा में हाथ डालत रहा आज आपके माँ बाप या गुरु जी आपकी रचनाये पढेंगे और कल शायद आपके बच्चे i माना कि ज़माना बदल गया है -- पर हम भारतीय है और हमारी एक सांस्कृतिक विरासत है i लोग इस पर लम्बी बहस कर सकते है पर मैं उसमे पड़ना नहीं चाहता i आदर्शो की सीमा आदमी अपने हिसाब से तय करता है जिसके लिए हर रचनाकार स्वतंत्र है i आप भी i मेरा सुझाव था i बंधन नहीं i
सोमेश भाई हर रचना लेखक अपने हिसाब से लिखने को स्वतन्त्र होता है पर जैसा की शिज्जु सर ने कहा है भाषा चयन में सावधानी बरतना जरूरी है, बाकी विद्वजनो ने कह ही दिया है , पर प्रयास अच्छा है , हार्दिक बधाई आपको !सादर
आ० गणेश जी बागी जी से में सहमत हूँ! पात्रों की बहुलता होने के कारण दिमाग इन्हें रिकोनाईज्ड नही कर पा रहा है! भाषा आमजन की ही है,कथ्य भी उसी के अनुसार सही ही है..विषय आजके समाज में जो चल रहा है उसका आइना है...मेरी मति के अनुसार बस इस तरह की रचनओं के लिए अलग कलम होना चाहिए!!
ऐसा लग रहा है कि कुआँ में ही भांग पड़ा हुआ है, पात्रों की बहुलता होने के कारण दिमाग इन्हें रिकोनाईज्ड नहीं कर पा रहा है, क्लियरीटी की कमी है. बोल्ड बिषय को भी ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है. सादर.
आपको सादर बधाई आ.सोमेश जी अच्छी रचना ,,,,,बाकि गुणीजन ही बताएं |
मार्गदर्शन एवं आशीष के लिए आभार आदरणीय |हो सकता है आपका कथन सत्य हो पर इस विषय पर लिखना अन्धानुकरण नहीं अपितु उस तुच्छ मानसिकता को दर्शाना है जो एक ही विषय पर दो तरह से राय रखती है |पिता-प्रधान मानसिकता का आज भी हावी होना अपने बच्चों की गलतियों को छुपाना और दुसरे की इज्जत को तार-तार करना और विधवाओं और लडकियों के जीवन को दुष्कर बनाकर तमाशा देखने वाली प्रवृति को उजागर ही इस कहानी को लिखने का कारण है |ये कहानी हमारे देहातों और छोटे कस्बों की ही कहानी है और वस्तुतः ये कथा एक सत्य घटना से प्रेरित है |
हो सकता है कि इस कहानी की भाषा पढ़े-लिखे और आदर्शवादी समाज के विपरीत हो पर क्या इसकी भाषा का क्षेत्र व्यापक नहीं है ?मानक ना होते हुए भी सर्वप्रचलित नहीं है ?मैं अश्लीलता के स्वयं विरुद्ध हूँ पर अगर सत्य नंगा है तो उसे नंगा कहना क्या गलत है ?क्या एक लेखक को सत्य कहने से सिर्फ इसलिए बचना चाहिए क्योंकि वो परम्परा और मान्यताओं के विरुद्ध है ?कृपया मार्गदर्शन करें ?
प्रिय सोमेश
कहानी का विषय कुछ बोल्ड था i मैं इस उम्र में भी ऐसी रचनाये नहीं करता i मेरे लिय साहित्य सदैव गंभीर और गरिमामय रहा है i हालांकि अब तो बहुत बोल्ड कहानिया यहाँ तक कि भदेश और अश्लील भी लिखा जा रहा है i पर हम अन्धानुकरण नहीं करते i सरस्वती को शर्मिन्दा नहीं करते i वह माँ है i आपकी कहानी ठीक -ठाक है i आप सुधार कर ही रहे है i सवाद थोडा और स्पष्ट तथा कसे होने चाहिए i जैसी मेहनत आप कविता में करते है उतनी ही मेहनत संवाद को सजाने में करे देखिये जादू हो जाएगा i बहुत-बहुत बधाई i
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