चुभन मत याद रखना तुम मिली जो खार से यारो
रहे बस याद फूलों की मिले जो प्यार से यारो
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नहीं शिव तो हुआ क्या फिर उपासक तो उसी के हम
गटक लें द्वेष का विष अब चलो संसार से यारो
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न समझो हक तम्हें तब तक सुमारी दोस्तो में है
रखो गर दुश्मनी भी तो मिलो अधिकार से यारो
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हमें जल के ही मरना था जलाया नीर ने तन मन
खुशी दो पल रही केवल बचे अंगार से यारो
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भरत वो हो नहीं सकता सदा लंकेश ही होगा
करे जो दंभ जीवन में मिले पदभार से यारो
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रही है रीत स्वागत की अगर पाहुन कोई आए
तमस अपमान पाए क्यों हमारे द्वार से यारो
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न जाने कैसी रस्में हैं उड़ेले प्यार हम जाते
मगर नफरत ही आती है सदा उस पार से यारो
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मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’
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