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ग़ज़ल : वक़्त कसाई के हाथों मैं इतनी बार कटा हूँ

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२

 

वक़्त कसाई के हाथों मैं इतनी बार कटा हूँ

जाने कितने टुकड़ों में किस किस के साथ गया हूँ

 

हल्के आघातों से भी मैं टूट बिखर जाता हूँ

इतनी बार हुआ हुँ ठंडा इतनी बार तपा हूँ

 

जाने क्या आकर्षण, क्या जादू होता है इनमें

झूठे वादों की कीमत पर मैं हर बार बिका हूँ

 

अब दोनों में कोई अन्तर समझ नहीं आता है

सुख में दुख में आँसू बनकर इतनी बार बहा हूँ

 

मुझमें ही शैतान कहीं है और कहीं है इन्साँ

माने या मत माने दुनिया मैं ही कहीं ख़ुदा हूँ

--------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 12, 2015 at 10:00pm

//जाने क्या आकर्षण, क्या जादू होता है इनमें

झूठे वादों की कीमत पर मैं हर बार बिका हूँ//

यह शेर मुझे अधिक पसंद आया, ग़ज़ल अच्छी लगी, दाद कुबूल करें आदरणीय धर्मेन्द्र जी.

Comment by Shyam Mathpal on March 12, 2015 at 8:16pm

Priya Dharmendra Ji,

Bahut Sundar rachna ke liye badhai.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 12, 2015 at 8:09pm

वाह वाह धर्मेन्द्र जी बहुत सुन्दर ग़ज़ल लिखी है सभी शेर प्रभावित करते हैं 

जाने क्या आकर्षण, क्या जादू होता है इनमें

झूठे वादों की कीमत पर मैं हर बार बिका हूँ-----इसके लिए तो बारम्बार बधाई 

 

Comment by maharshi tripathi on March 12, 2015 at 8:01pm

वाह!!!बहुत खूबसूरत ,,लाजवाब गजल ,,,,हार्दिक बधाई आ. धर्मेन्द्र कुमार सिंह

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