2122--2122--2122--212
इक यही सूरत बची है आज़्मा कर देखिये
दोस्ती अब दुश्मनों से भी निभाकर कर देखिये
आँख से रंगीन चश्में को हटाकर देखिये
जिंदगी के रंग थोड़ा पास आकर देखिये
रोज खुश रहने में दिल को लुत्फ़ मिलता है मगर
जायका बदले ज़रा सा ग़म भी खाकर देखिये
कल बड़ी मासूमियत से आईने ने ये कहा
हो सके तो आज मुझको मुस्कराकर देखिये
छोड़ कर इन ख़ामोशियों को चार दिन तन्हाँ कहीं
आसमां को भी कभी सर पर उठाकर देखिये
ख़ुशबुओं के काफिले जायेंगे खुद ही दूर तक
इक जरा सा आप फूलों को हसाँकर देखिये
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित”
Comment
आदरणीय श्याम मठपाल जी , बहुत बहुत धन्यवाद आपका ! सादर
आदरणीय मोहन सेठी जी, ह्रदय से आभार आपका ,सादर !
आदरणीय डॉक्टर विजय शंकर सर, रचना के समर्थन एवं आपकी उत्साह भरी प्रतिक्रया के लिए हार्दिक आभार ! सादर
आदरणीय धर्मेन्द्र कुमार जी , रचना पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया पर आपका हार्दिक आभार !
आदरणीय निर्मल नदीम भाई , आपका हार्दिक आभार ! सादर
behad umda ghazal hui hai janab.
bahut bahut mubarak ho. daad hazir hai.
हर शेर उम्दा ....बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है जनाब ...बधाई.... सादर
आदरणीय मिथिलेश भाई , रचना की सराहना करने के लिए आपका बहुत- बहुत आभार ! सादर
आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी ,आपका बहुत बहुत धन्यवाद ! सादर
आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव सर, आपकी सराहना एवं स्नेह से उत्साह बढ़ जाता है ! हार्दिक आभार ! सादर
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