गौर से देखो रेगिस्तान को
मीलों दूर तक
बिखरा पडा है
अपनी सुन्दरता सँवारे हुये
कितनी सदियों से
आँधी तूफानों से
अनवरत लडा है
कई बार साजिशें हुयीं है
सहरा की धूल को
दूर उडा ले जाने की
इसके अस्तित्व को
हमेशा के लिये
मिटाने की
पानी के लिये
प्यासा ही जी रहा है
पानी ने भी कसर नहीं छोडी है
इसे बहाकर दूर ले जाने में
कई बार गुजरा है
इसके वक्ष स्थल से होकर
मगर रेगिस्तान का
स्वाभिमान तो देखिये
चाहता तो सोख जाता
समन्दर को
डुबो लेता खुद के अन्दर
मगर गुजर जाने देता है
दरिया के तूफान को
नहीं पीता है
पानी की बूँद तक भी
अमर है रेगिस्तान
अमर है इसकी सुन्दरता
अमर है इसका
तिनका तिनका तार तार
बिखर जाना
जिसका प्रमाण है
कितने ही युगों से
हजारों मील तक फैला रेेगिस्तान
मुझे भी
अच्छा लगा इसी तरह
बिखर जाना
और मैं बिखर गया
तिनका तिनका तार तार
अब लगने लगा हूँ शायद
पहले से ज्यादा सुन्दर
देखता हूँ खुद को खुद ही
अपने बिखरे हुये टुकडों में
बार बार
उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
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सुंदर रचना के लिए बहुत बधाई सादर |
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