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मोतियों को गूंथकर धागा सदा हँसता गया
जंग खाये रास्तों को कांरवाँ चमका गया
ओस से भीगे बदन पर थी नजर खुर्शीद की
प्यास उसकी खुद बुझाकर फूल इक खिलता गया
बन गये अफ़साने कितने और नगमें जी उठे
जब जमीं ने सर उठाया आसमां झुकता गया
कहकशाँ में यूँ नहाई चाँदनी जल्वानशीं
नूर उसका देखकर महताब भी पथरा गया
हुस्न की मलिका कली की देख वो अँगड़ाइयां
चूम कर रुख्सार उसके दफअतन भँवरा गया
फिर तबस्सुम जिन्दगी के शुष्क लब पर आ गई
कनखियों से देखता जब अब्र का टुकड़ा गया
जी उठी फिर वादियों में वो मुहब्बत की ग़ज़ल
इक परिंदा जब तरन्नुम में उसे गाता गया
जुगनुओं की बज्म से जब रात घर वापस चली
इक मुसाफिर राह में सिन्दूर से नहला गया
झील में उगता सवेरा जाल में मछली फँसी
बढ़ गई चहरों की रंगत घर में जब झोला गया
कुलबुलाती भूख की वो चहचहाहट थम गई
वालिदा की चोंच से जब पेट में दाना गया
'राज' कुदरत भी अछूती है न मानव स्वार्थ से
हर करिश्मा तो नफ़ा नुक्सान में तोला गया
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आ० डॉ० आशुतोष जी ,ग़ज़ल पर आपकी प्रतिक्रिया मेरी लेखनी को ऊर्जस्वी कर रही है मेरा उत्साह दुगुना हो गया आपका तहे दिल से आभार .
आ० विजय निकोर जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ ,दिल से आभारी हूँ .
आदरणीया राज जी ..आपकी हर ग़ज़ल उम्दा होती है ..प्रकृति के प्रतीकों का लगभग हर ग़ज़ल में बखूबी इस्तेमाल होता है ..इस शानदार मनभावन ग़ज़ल के लिए दिल से हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर
सदैव समान आपकी यह गज़ल भी अच्छी लगी। बधाई।
कृष्ण मिश्रा जी ,ग़ज़ल आपको पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ तहे दिल से आभार आपका .
ओस से भीगे बदन पर थी नजर खुर्शीद की
प्यास उसकी खुद बुझाकर फूल इक खिलता गया बहुत उम्दा! क्या कहने इस शेर के!
कुलबुलाती भूख की वो चहचहाहट थम गई
वालिदा की चोंच से जब पेट में दाना गया वाह!!
सुंदर गजल पर ढेरों बधाईयां आदरणीया rajesh kumari जी!
प्रिय निधि जी ,ग़ज़ल पर आपकी प्रतिक्रिया से उत्साहित हूँ आपका तहे दिल से बहुत- बहुत शुक्रिया.
आ० श्याम नारायण जी,इस होंसलाफ्जाई का तहे दिल से शुक्रिया |
आ० डॉ.गोपाल भैया ,आपको ग़ज़ल पसंद आई इस प्रोत्साहन के लिए दिल से आभार आपका |
बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल हुई है दीदी
कुलबुलाती भूख की वो चहचहाहट थम गई
वालिदा की चोंच से जब पेट में दाना गया
यह शेर तो कमाल का बन पड़ा है !
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