प्रधान मंत्री का कारवाँ चला जा रहा था कि बीच में एक जंगल से गुजरते हुए साइड विंडो से अचानक दिखाई दिया, कुछ स्त्रियाँ सिर पर लकड़ियों की गठरिया लिए जा रही थीं उनमे एक वृद्धा जो पीछे रह गई थी अभी गठरिया बाँध ही रही थी कि प्रधान मंत्री जी ने गाड़ी रुकवाई और उस वृद्धा से बातचीत करने पंहुच गए.|
“किस गाँव की हो माई? इस उम्र में ये काम!.. तुम्हारे बच्चे’?
“क्यूँ नहीं साब जी, एक बिटवा है जो फ़ौज में है, पोता है, बहू है” वृद्धा बोली.
“बेटा पैसा तो भेजता होगा”? “हाँ जी, जब से शादी हुई उसकी किताबो में मेरी जगह बहु का नाम लिख गया तो पैसा सब बहू के पास आवे है फिर उसे भी तो अपने बच्चों के लिये पैसा चाहिए” |
”माई तुम्हारा गाँव कितनी दूर है यहाँ से”? “तीन किलोमीटर कहे हैं लोग”|
“तुम पैदल ही”? “हाँ उसमे कौनु बड़ी बात है”|
“कभी कोई मंत्री आया उस गाँव में”? “ना जी, सारा रास्ता उबड खाबड़ है और सुना है मंत्री लोग बहुत नाजुक होवे हैं गाड़ी में भी आवेंगे तो कमर में लोच आ जावेगी इस लिए कोई नी आता जी”|
“मुझे पहचानती हो?; टीवी है ?मतलब बिजली विजली है गाँव में”?
“जी काहे मजाक करते हो?"
"बेटे के पास गई थी एक बार बस तब देखा था कैसा होवे टीवी”|
“चल माई गठरी मैं उठवा दूँ”? “ना बेटा रहन दे अपना भार खुद ही उठाना पड़े है जिन्दगी में, वैसे भी प्रधान मंत्री के कंधो पे तो देश का ही भतेरा भार रहवे है बेट्टा तू उसे संभाल”. इतना कहकर वृद्धा ने झटके से गठरी उठाई और सिर पर रख कर तेज-तेज क़दमों से आगे निकल गई|
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
पवन कुमार जी,आपको लघु कथा प्रभावी लगी मेरा लिखना सफल हुआ हार्दिक आभार आपका
सुन्दर लघुकथा, कई भाव एक साथ प्रकट हो रहे हैं
आदरणीया, सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई !सादर!
आ० हरिप्रकाश दूबे जी ,लघु कथा में निहित मर्म को समझ कर दी गई उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया हेतु दिल से आभार.
जितेन्द्र भैय्या ,आपको लघु कथा पसंद आई उसका सन्देश प्रभावित किया हृदय से आभारी हूँ.
सोमेश भैय्या,आपको कहानी का सन्देश पसंद आया इसकी मुझे प्रसन्नता है बहुत- बहुत आभार आपका|रही बात नायिका की भाषा की तो कहानी में नायिका के किस स्थान को बिलोंग करती है उसका जिक्र करना जरूरी नहीं समझा आप यदि किसी उत्तर प्रदेश के इंटीरियर जगह पर भी जायेंगे वहाँ भी आपको खिचड़ी बोली मिल जायेगी|नायिका की बोली में कटुता रहे पर इस बात पर विशेष ध्यान दिया है |
"ना बेटा रहन दे अपना भार खुद ही उठाना पड़े है जिन्दगी में" बहुत सुन्दर संदेशप्रद रचना है आदरणीया राजेश कुमारी जी ,हार्दिक बधाई आपको ! सादर
सार्थक सन्देश छोडती एक सफल और मर्मस्पर्शी लघुकथा साझा की आपने ,आदरणीया राजेश दीदी. हार्दिक बधाई
आदरणीय मिथिलेश सर मैंने कोई भी टिप्पणी बिना सभी आदरणीय जनों के टिपण्णी को पढ़े,बिना लेख को कई बार पढ़े,बिना सोचे समझे,बिना मनन करे नही की,मैंने अपना मत रक्खा,उस पर आई प्रतिकिया के अनूरूप फिर से अपनी बात रक्खी,इसमें हठधर्मिता का प्रश्न ही कहाँ उठता है,क्या अपनी बात कहना हठधर्मिता है?मैंने अपनी सभी टिपण्णी सम्मानपूर्वक की है,पूरी मर्यादा में,मंच की गरिमा प्रश्न ही कहाँ से आता है! इसमें इतना असहज होने की बात ही नही थी!!यह दुखद है!!
आदरणीय मिथिलेश सर और आदरणीया rajesh kumari जी आपको मेरी किसी बात से दुःख पंहुचा हो तो उसके लिए मै हृदय से क्षमाप्रार्थी हूँ!!
आदरणीय दीदी जी
कहानी में माई ने टीवी को जानने की बात कही है प्रधानमन्त्री को नहीं ,संभव है बड़े लाव-लश्कर को देखकर माई उन्हें कोई बड़ा आदमी मान लें पर प्रधानमन्त्री का जब तक परिचय कोई ना दें उनके लिए प्रधानमन्त्री का सम्बोधन जंच नहीं रहा |भले ही कहानी की नायिका इस वय में आ कर भी आत्म-सम्मान से भरी हो और लघुकथा एक सफल संदेश छोड़ती हो पर मुझे माई की भाषा शैली खटक रही है |माई की भाषा में हरियाणावी हिंदी व बिहारी हिंदी का मिश्रित प्रभाव है |अगर नायिका निपट देहाती है तो ये प्रभाव सही नहीं है परंतु आजकल हरियाणा में लडकियाँ कम होने के कारण सुदूर राज्यों से बहू लाईं जाती हैं ऐसी नायिका के भाषा को इस रूप में स्वीकार किया जा सकता है |परंतु ये स्थिति आजकल की है जबकि नायिका स्वयं में एक वृद्धा है |हो सकता है ये मेरा भ्रम हो पर मुझे ये भाषिक दोष जान पड़ता है |
सादर
आपका छोटा भाई
मिथिलेश जी, बहुत- बहुत शुक्रिया अब शायद.....शायद क्या आशा करती हूँ कि कृष्ण जी के जिज्ञासु मन को कुछ संतुष्टि मिले.
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