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आदरणीय दिनेश कुमार जी आपकी इस ग़ज़ल के कुछ अश'आर कहन के हवाले से प्रभावित करते हैं जैसे-
बिन किसी विभीषण के ढहती है कहाँ लंका
साज़िशों में कुछ अपने मोतबर निकलते हैं
आख़िरत में क्या होगा हम अभी से क्यूँ सोचें
सोच कर यही घर से हमसफ़र निकलते हैं
इनके लिये दाद कुबूल करें
कुछ जगह मैं आपका ध्यान ज़रूर आकर्षित करना चाहूँगा जैसे मतले में अश'आर का वज्न आपने 22 लिया यहाँ मात्रा गिराना क्या सही है ज़रा देख लें।
दूसरे, रवायती ग़ज़लों में वाइज़ का उल्लेख धर्मोपदेशक के रूप में किया गया है जिसे नापसंद किया जाता है मगर वाइज़ का शराब पीना एक विरोधाभास पैदा कर रहा है। इसी शे'र में भी वही गलती है जो मतले के ऊला में है। यदि इस बह्र में आपने एक अतिरिक्त लघु लिया है तो क्या वो अर्कान के बीच में लेना सही है? ज़रा देख लें।
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