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ग़ज़ल -- बूँद भी नहीं मिलती...... (मिथिलेश वामनकर)

212---1222---212---1222

 

धूप भी नहीं मिलती छाँव भी नहीं मिलती

ताकतों के साए में ज़िन्दगी नहीं मिलती

 

ज़िन्दगी मुकम्मल हो ये कभी नहीं मुमकिन 

गर मिले समंदर तो तिश्नगी नहीं मिलती

 

आसमां सियासत से रूबरू हुआ जबसे

चाँद भी नहीं मिलता चांदनी नहीं मिलती

 

जाम के हवाले से दो जहां उठा लाया

मैकशी के आलम में बूँद भी नहीं मिलती

 

मत करो कदमबोसी दूरियां जरूरी है

ज्यूं तले  चरागों के रौशनी नहीं मिलती

 

बात में सचाई हो, रूह में खुदाई हो

आदमी नहीं जिसमें कुछ कमी नहीं मिलती

 

धुंध ये अजीयत की, खा गई नसीबों को

हाथ की लकीरें भी साफ़ सी नहीं मिलती

 

हसरतों के साये में बेकफन मरासिम है

आँख का मरा पानी अब नमी नहीं मिलती

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 23, 2015 at 3:40pm
आदरणीय निर्मल नदीम भाई जी ग़ज़ल पर आपकी उत्साहवर्धक सकारात्मक प्रतिक्रिया और सराहना पाकर धन्य हुआ। हार्दिक आभार।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 23, 2015 at 3:38pm
आदरणीय धर्मेन्द्र भाई जी ग़ज़ल पर आपकी मुक्तकंठ प्रशंसा पाकर अभिभूत हूँ। जब आप जैसे सुलझे हुए ग़ज़लकार से तारीफ और दाद मिलती है तो लगता है लिखना सार्थक हुआ। एक नए अभ्यासी का बहुत उत्साहवर्धन होता है। मनोबल बढ़ता है। हार्दिक आभार।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 23, 2015 at 2:11pm

आ० वामनकर जी

खूबसूरत . गजलगोई में आपका जवाब नहीं.  सादर .

Comment by Nidhi Agrawal on March 23, 2015 at 1:36pm

व्वाआआआआअह्ह्ह्ह.. ज़बरदस्त ग़ज़ल हुई .. हर शेर उम्दा .. मजा आ गया 


ज़िन्दगी मुकम्मल हो ये कभी नहीं मुमकिन
गर मिले समंदर तो तिश्नगी नहीं मिलती  ------------------- क्या बात क्या बात !! 

आसमां सियासत से रूबरू हुआ जबसे
चाँद भी नहीं मिलता चांदनी नहीं मिलती  --- एकदम सच है सर क्या कहने 

बात में सचाई हो, रूह में खुदाई हो
आदमी नहीं जिसमें कुछ कमी नहीं मिलती  ---- माशा अल्लाह क्या शेर कहा है 

दिली दाद कुबूल करें आदरणीय मिथिलेश जी 

Comment by Shyam Narain Verma on March 23, 2015 at 12:33pm
क्या बात है .... बहुत उम्दा | बधाई आप को 
Comment by Nirmal Nadeem on March 23, 2015 at 12:01pm

Bahut umda bhai waaah waaah waaaah. bahut khooob. mazaaa aa gya. mubarak ho

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 23, 2015 at 11:42am
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल हुई है आ. मिथिलेश जी, एक से बढ़कर एक अश’आर हैं। किस की तारीफ़ करूँ और किस को छोड़ूँ। दिली दाद कुबूल कीजिए।

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