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ग़ज़ल-- कई पत्थर उछाले हैं....(मिथिलेश वामनकर)

1222---1222---1222---1222

 

सभी खामोश बैठे हैं, सदा पर आज ताले हैं

हमारी बात के सबने गलत मतलब निकाले हैं  

 

उजड़ते शह्र का मंजर न देखें सुर्ख रू साहिब  

गज़ब के आइने इनके, गज़ब के अक्स वाले हैं

 

करें तक्सीम जो मज़हब, मुझे क्या वो बताएँगे

कहाँ मस्जिद मेरे गिरजे, कहाँ मेरे शिवाले हैं

 

उसे भी आँख का पानी बुझाकर राख कर देगा

कहो नफरत के शोलों से तुम्हारे हश्र काले हैं

 

वहां साड़ी का पल्लू भी हवा में उड़ रहा होगा

बयाज़े-दिल जुदाई के तसव्वुर भी निराले हैं

 

मेरी तकदीर का तारा फलक से गिर पड़े शायद

इसी उम्मीद में पैहम कई पत्थर उछाले हैं

 

बिहाने नींद खुल जाए, सहर की धूप मिल जाए

इसी हसरत में सोये थे, उठे उम्मीद पाले हैं

 

गुलों को देखकर कितना परेशां बाग़ का आलम

वही अनजान बैठे हैं, चमन जिनके हवाले हैं

 

यकीं ‘मिथिलेश’ जो खुद पे हमें डर तीरगी से क्या

जले हम दीप के जैसे, हमारे ही उजाले हैं

 

 

------------------------------------------------------
(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
----------------------------------------------------

 

सुर्खरू-लाल मुख,    बयाज़े-दिल- दिल की डायरी,      पैहम-लगातार,      तीरगी-अँधेरा

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Comment

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Comment by मिथिलेश वामनकर on March 30, 2015 at 9:12pm

आदरणीय हरिप्रकाश भाई जी ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार 

Comment by Hari Prakash Dubey on March 30, 2015 at 7:33pm

आदरणीय मिथिलेश भाई , बहुत ही शानदार रचना है ,ये शे'र तो लाजवाब हैं ,

सभी खामोश बैठे हैं, सदा पर आज ताले हैं

हमारी बात के सबने गलत मतलब निकाले हैं  ...बहुत सुन्दर

 

मुझे दादी बताती थी फलक पे है खुदा का घर

जमीं पर क्यों भला मस्जिद कहीं गिरजा शिवाले हैं......बहुत ही उर्वर , बहुत बहुत बधाई आपको इस संपूर्ण सुन्दर रचना पर ! सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 30, 2015 at 5:08pm

आदरणीय श्याम नरेन वर्मा जी बहुत बहुत आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 30, 2015 at 5:03pm

आदरणीय समर कबीर सर, सकारात्मक प्रतिक्रिया एवं मार्गदर्शन हेतु आभार . आपके मार्गदर्शन अनुसार संशोधन कर दिया है. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 30, 2015 at 4:58pm

आदरणीय नीलेश सर, सकारात्मक प्रतिक्रिया एवं मार्गदर्शन हेतु आभार . आपके मार्गदर्शन अनुसार संशोधन कर दिया है. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 30, 2015 at 4:56pm

आदरणीय डॉ विजय शंकर सर, रचना की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. नमन 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 30, 2015 at 4:55pm

आदरणीय डॉ  गोपाल नारायण श्रीवास्तव सर, आपसे सराहना और सकारात्मक प्रतिक्रिया मिलती है तो रचनाकर्म हेतु सदैव हौसला मिलता  है. और मनोबल बढ़ जाता है. आपका हार्दिक आभार, नमन 

Comment by Shyam Narain Verma on March 30, 2015 at 4:49pm
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल! आपको बहुत-बहुत बधाई!
Comment by Samar kabeer on March 30, 2015 at 11:15am
जनाब मिथिलेश वामनकर जी,आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,एक एक शैर दाद के क़ाबिल है,दूसरे शैर के ऊला मिसरे में "शह्र" की जगह "शहर" टाईप हो गया है और रदीफ़ में "हैं" की जगह है |
शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं |
Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 30, 2015 at 10:55am

बहुत खूब आदरणीय मिथिलेश जी. सभी शेर दमदार हुए हैं. पूरी ग़ज़ल खूब हुई है.
बस हर जगह रदीफ़ 'है' की जगह " हैं "  बन रहा है ...
सादर 
 

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