22 12 12 11 22 12 12
मुश्किल सवाल ज़ीस्त के आसान हो गए,
ता-हश्र हम जो कब्र के मेहमान हो गए.
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जब से कमाई बंद हुई सब बदल गया
अपनों पे बोझ हो गए सामान हो गए.
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मेरे ये हर्फ़ बन न सके गीत और ग़ज़ल
उनके तो वेद हो गए कुर’आन हो गए.
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उसने बना के भेजा हमें आदमी प् हम
हिन्दू इसाई और मुसलमान हो गए.
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जब हश्र पर दिखाया गया आईना हमें
ख़ुद के चलन पे ख़ुद ही पशेमान हो गए.
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कुछ लोग इस जहान में इंसान भी नहीं,
कुछ लोग ऐसे देखे जो भगवान हो गए.
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ऐसा नहीं की आपने इस दिल को छू लिया
मासूमियत पे आपकी कुर्बान हो गए.
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जब से बदल लिया है हवाओं ने अपना रुख
वाक़िफ थे लोग जितने भी अन्जान हो गए.
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मिसरे कहे थे चंद यूँ ही खेल खेल में
शायर के बाद उसकी वो पहचान हो गए.
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बरसों ख़फ़ा रहे वो कभी बात तक न की
फिर एक दिन वो हम पे मेहरबान हो गए.
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वो रह न पाए साथ मगर धडकनों में हैं
मेरी हर एक नज़्म का उन्वान हो गए.
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जब से हुआ है ‘नूर’ निगहबाँ चिराग़ का
जितने भी थे रक़ीब वो तूफ़ान हो गए.
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नूर
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. महिमा श्री जी
बेहतरीन ग़ज़ल .... आ. नीलेश जी बहुत-2 बधाई आपको..
शुक्रिया आ. धर्मेन्द्र जी
शुक्रिया आ. श्याम जी
शुक्रिया आ. कृष्ण मिश्रा जी
आ० नीलेश जी,
बहुत सुंदर रचना . हार्दिक बधाई.
शुक्रिया आ. डॉ साहब. आप सभी साथियों की प्रतिक्रिया पाकर ग़ज़ल मुकम्मल हो गयी है
सादर
शुक्रिया आ. शिज्जू भाई
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