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रात पूछती नहीं

रात के कुएं में
क्या मैं हूँ कूपमंडूक की भांति
और मुझे भान नहीं
उजालों के अस्तित्व का.

या कि हूँ एक भागा हुआ आदमी -
उजालों के भय से.

कुछ भी सोचो, तय यही है,
मुझसे गप्पें मारतीं रातें
पूछतीं नहीं- 'तुम क्यों हो नंगे' .

दिखातीं नहीं मेरी दुरवस्था औरों को,
घर की बात समझतीं हैं.

कह रही थी वह-
एक भाई है मेरा,
मेरी प्रकृति के विपरीत,
सवाल करता है बहुत,
पटरी बैठती नहीं मेरी-उसकी.

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by shree suneel on April 6, 2015 at 7:27am
आ0 गिरिराज सर, आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया से कविता का सौंदर्य बढ़ा सा प्रतीत होता है.
बहुत बहुत धन्यवाद. सादर
Comment by shree suneel on April 6, 2015 at 7:14am
आ0 हरि प्रकाश जी, उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद. सादर
Comment by shree suneel on April 6, 2015 at 7:09am
आ0 मिथलेश वामनकर सर, कविता की सराहना के लिए धन्यवाद.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 5, 2015 at 11:28pm

सच बात है आदरनीय , अपनी कमियों के बारे में कोई बात करना , प्रश्न पूछा जाना पसंद नही करते , सुन्दर रचना के लिये बधाई ॥

Comment by Hari Prakash Dubey on April 5, 2015 at 9:23pm

श्रीयुत  श्री सुनील जी , कुछ अलग हटकर ,सुन्दर प्रस्तुति , हार्दिक बधाई ! सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 5, 2015 at 6:06pm

आदरणीय सुनील जी इस सुन्दर प्रस्तुति प्रस्तुति पर बधाई निवेदित है 

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