आते-आते मैंने भी ललना से लगन लगाई है
थोड़ी कह लो देर भले,मैंने भी बीबी पायी है
आयी,मन की कोई भी कली नहीं मुरझाई है
लगता सब हरा-हरा,ख़ुशी चतुर्दिक छाई है।
हूरों की मशहूर कथाएँ होंगी,मुझे भला क्या,
मुझको तो अपनीवाली सबसे आगे भायी है
खाते ठोकर रह गये, कुछ भी तो मिला नहीं,
मुझको तो अपनीवाली मीठी-सी खटाई है।
बूँद-बूँद पानी को तरसा,चलती रहीं हवाएँ,
बेमौसम बरसात हुई,रूप की बदली छाई है।
फूल-फूल भटका हूँ ,काँटों की ताकीद रही,
मधु का अक्षय कोष ले मेरी'दुनिया'आयी है।
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@मनन(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय मिथिलेश जी, गोपालजी व गिरिराज भाई ! स्नेह-अर्पण तथा मार्गदर्शन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद आप सभी को।
आदरणीय मनन भाई , रचना के लिये बधाई ! पर- गीतिका के विष्य मे आदरणीय गोपाल भाई जी से सहमत हूँ ।
आ0 मनन जी
मानक के अनुसार यह न तो मात्रिक गीतिका छंद है और न वर्णिक . फिर गीतिका का क्या आशय है कही छोटा गीत तो आपका तात्पर्य नहीं है . सादर .
आदरणीय मनन कुमार सिंह जी प्रस्तुति हेतु बधाई
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