इक दिन बिकने लग जाएँगे बादल-वादल सब
दरिया-वरिया, पर्वत-सर्वत, जंगल-वंगल सब
पूँजी के नौकर भर हैं ये होटल-वोटल सब
फ़ैशन-वैशन, फ़िल्में-विल्में, चैनल-वैनल सब
महलों की चमचागीरी में जुटे रहें हरदम
डीयम-वीयम, यसपी-वसपी, जनरल-वनरल सब
समय हमारा खाकर मोटे होते जाएँगे
ब्लॉगर-व्लॉगर, याहू-वाहू, गूगल-वूगल सब
कंकरीट का राक्षस धीरे धीरे खाएगा
बंजर-वंजर, पोखर-वोखर, दलदल-वलदल सब
जो न बिकेंगे पूँजी के हाथों मिट जाएँगे
पाकड़-वाकड़, बरगद-वरगद, पीपल-वीपल सब
आज अगर धरती दे दोगे कल वो माँगेंगे
अम्बर-वम्बर, सूरज-वूरज, मंगल-वंगल सब
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
बहुत बढ़िया, आनंद आ गया, बधाई आ. धर्मेन्द्र जी.
जिंदाबाद भाई
दिल खुश कर दिया ...
पूँजी के नौकर भर हैं ये होटल-वोटल सब
फ़ैशन-वैशन, फ़िल्में-विल्में, चैनल-वैनल सब---बहुत खूब
बहुत अच्छी लगी ये ग़ज़ल ..हार्दिक बधाई आ० धर्मेन्द्र जी |
अच्छी गजल कही है श्रीमान वाह बधाई
क्या बात है !! आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , आ. राहत भाई की ज़मीन पर मंच मे एक और बेहतरीन गज़ल पढ़वाई आपने ॥ आपको दिले बधाई ॥
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