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अतुकांत कविता : मुक्ति (गणेश जी बागी)

मुख पर स्थाई भाव
न राग न द्वेष
शांत और निच्छल
पूर्णता को प्राप्त

जिन्दगी की भाग-दौड़
बहू की भुन-भुन
बेटे की झिड़की 
पत्नि की देखभाल

और ....

महंगी दवाइयों से
मिल गयी मुक्ति
 

चल पड़ा वो
सब कुछ त्याग
महा-यात्रा पर....

(मौलिक व अप्रकाशित)
पिछला पोस्ट => तरही ग़ज़ल (तू रात की रानी है)

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Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 14, 2015 at 10:17pm

आदरणीय डॉ विजय शंकर जी, रचना पर आपकी उपस्थिति और प्रथम आशीर्वाद दोनों आह्लादित कर गया, बहुत बहुत आभार.

Comment by Nidhi Agrawal on April 14, 2015 at 6:25pm

जीवन का अंतिम सत्य.. बहुत कम शब्दों में ..शांत और सटीक तरीके से पेश हुवे सर.  नमन 

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 14, 2015 at 5:24pm
चल पड़ा वो
सब कुछ त्याग
महा-यात्रा पर....
बहुत सुन्दर, महा-यात्रा या अंतिम-यात्रा सबकुछ त्याग कर ही शुरू होती है , सुख- दुःख, समस्त बंधन ....... , एक असीम शान्ति के साथ, एक चिर-स्थाई शान्ति के साथ. अपने शीर्षक को सार्थक करती इस रचना के लिए बहुत बहुत बधाई, आदरणीय इंजीo गणेश जी बागी जी , सादर।

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