“मास्टर साहब तनिक मेरे छोटका बेटा को समझाइये न, गलत संगत में पड़ वह अपनी जिन्दगी और खानदान का नाम... दोनों बर्बाद कर रहा है.”
मास्टर साहब को चुप देख प्रधान जी पुनः बोल पड़े.
“आप तो उसे ऊँगली पकड़ कर चलना सिखाये हैं आप की बात वो जरुर मानेगा.”
“प्रधान जी आपके कहने से पहले ही मैंने सोचा था कि उसे समझाऊं किन्तु ...”
किन्तु क्या मास्टर साहब ?
"प्रधान जी क्षमा चाहूँगा किन्तु कीचड़ से सनी उसकी जूती तथा अपना उजला लिबास देख उसे समझाने का साहस मैं नहीं जुटा सका."
(मौलिक व अप्रकाशित)
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Comment
आदार्णीय बागी भाई जी , जितनी चिंता प्रधान जी उजले कपड़ों का कर रहे है उतनी चरित्र की करते तो ये नौबत ही नही आती ॥ बहुत सुन्दर व्यंग्य करती आपकी लघुकथा के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥
अपना उजला लिबास बचाने के चक्कर में ही तो जूती कीचड़ से सनती जा रही हैं ...बहुत अच्छी लघुकथा
आदरणीय गणेश भाईजी
बच्चों की गंदगी साफ करूँ, और खुद गंदा हो जाऊँ।
जब मेरे गुरू ने नहीं सिखाया, मैं क्यों उसे सिखाऊँ॥
माँ बाप बिगाड़ेंं बच्चों को , मास्टर को कहें सुधार।
बच्चे तो पैदा करते हैं, नहीं देते अच्छे संस्कार ||
लघु कथा की हार्दिक बधाई स्वीकार करें
आदरणीय बागी जी
कमाल की रचना . कीचड से सनी जूती और शिक्षक का उजला लिबास . सच है --
काजल की कोठरी मे कितनो ही सयानो जाय, एक रेख काजल की लागिहै पै लागिहै .सादर अभिनन्दन.
बहुत बेहतर लघुकथा, सर. कीचड़ और उजले लिबास वाली पंच का क्या जानदार उपयोग किया है आपने. बहुत-बहुत बधाई ,सर
आदरणीय विनोद जी, लघुकथा पर आपकी उपस्थित ही मुग्धकारी है उसपर आपकी सराहना युक्त टिप्पणी...बहुत बहुत आभार.
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