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लघुकथा : साहस (गणेश जी बागी)

“मास्टर साहब तनिक मेरे छोटका बेटा को समझाइये न, गलत संगत में पड़ वह अपनी जिन्दगी और खानदान का नाम... दोनों बर्बाद कर रहा है.”  

मास्टर साहब को चुप देख प्रधान जी पुनः बोल पड़े.

“आप तो उसे ऊँगली पकड़ कर चलना सिखाये हैं आप की बात वो जरुर मानेगा.”

“प्रधान जी आपके कहने से पहले ही मैंने सोचा था कि उसे समझाऊं किन्तु ...”

किन्तु क्या मास्टर साहब ?

"प्रधान जी क्षमा चाहूँगा किन्तु कीचड़ से सनी उसकी जूती तथा अपना उजला लिबास देख उसे समझाने का साहस मैं नहीं जुटा सका."

(मौलिक व अप्रकाशित)
पिछला पोस्ट =>अतुकांत कविता : मुक्ति

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Comment by shree suneel on April 17, 2015 at 2:23am
आदरणीय गणेश जी, कह सकते हैं, लघु-कथा में एक और लघु-कथा. पंच लाइन स्वयं में भरा-पूरा.
बधाई.. बधाई...

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 16, 2015 at 11:31pm

आदार्णीय बागी भाई जी , जितनी चिंता प्रधान जी उजले कपड़ों का कर रहे है उतनी चरित्र की करते तो ये नौबत ही नही आती ॥ बहुत सुन्दर व्यंग्य करती आपकी लघुकथा के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥

Comment by savitamishra on April 16, 2015 at 11:10pm

अपना उजला लिबास बचाने के चक्कर में ही तो जूती कीचड़ से सनती जा रही हैं ...बहुत अच्छी लघुकथा

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on April 16, 2015 at 8:26pm

आदरणीय गणेश भाईजी

बच्चों की गंदगी साफ करूँ, और खुद गंदा हो जाऊँ। 

जब मेरे गुरू ने नहीं सिखाया, मैं क्यों उसे सिखाऊँ॥

माँ बाप बिगाड़ेंं बच्चों को , मास्टर को कहें सुधार।

बच्चे तो पैदा करते हैं,  नहीं देते अच्छे संस्कार ||

लघु कथा की हार्दिक बधाई स्वीकार करें 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 16, 2015 at 7:56pm

आदरणीय बागी जी

कमाल की रचना . कीचड  से सनी जूती और शिक्षक का उजला लिबास . सच है --

काजल की कोठरी मे कितनो ही सयानो जाय,  एक रेख काजल की लागिहै  पै लागिहै .सादर अभिनन्दन.  

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 16, 2015 at 7:44pm

बहुत बेहतर लघुकथा, सर. कीचड़ और उजले लिबास वाली पंच का क्या जानदार उपयोग किया है आपने. बहुत-बहुत बधाई ,सर


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 16, 2015 at 7:40pm

आदरणीय विनोद जी, लघुकथा पर आपकी उपस्थित ही मुग्धकारी है उसपर आपकी सराहना युक्त टिप्पणी...बहुत बहुत आभार.

Comment by विनोद खनगवाल on April 16, 2015 at 7:12pm
मास्टर जी अपनी समझदारी से अपना उजला लिबास बचा गए। बहुत बेहतरीन लघुकथा आ. गणेश बागी जी। बधाई स्वीकार करें।

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