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ग़ज़ल नूर- बातों को ज़हरीला होते देखा है.

२२२२/२२२२/२२२ 
.
आँखों को सपनीला होते देखा है
ख़्वाबों को रंगीला होते देखा है.
.
क़िस्मत ने भी खेल अजब दिखलाए हैं
पत्थर भी चमकीला होते देखा है.
.
सादापन ही कौम की थी पहचान जहाँ
पहनावा भड़कीला होते देखा है.
.
मुफ़्त में ये तहज़ीब नहीं हमनें पायी
शहरों को भी टीला होते देखा है.
.
कुर्सी की ताक़त है जाने कुछ ऐसी
बूढा, छैल-छबीला होते देखा है.    
.
आज तुम्हारे होंठो पर नीलापन था
बातों को ज़हरीला होते देखा है.
.
वक़्त के हंटर नंगी पीठ पे पड़ते ही,
हर तेवर को ढीला होते देखा है.  
.
खेत खा गया कंक्रीट का ये जंगल
गाँवों को शहरीला होते देखा है.   
.
‘नूर’ न पूछो सुर्खी क्यूँ है आँखों में  
दो हाथों को पीला होते देखा है.
.
नूर 
मौलिक / अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 17, 2015 at 10:22pm

आज तुम्हारे होंठो पर नीलापन था
बातों को ज़हरीला होते देखा है.   वाह! वाह!

सुन्दर गज़ल पर बधाई आदरणीय!nilesh जी!

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 17, 2015 at 9:52pm

आ. डॉ साहब.. इस बहर में २२२ को कहीं भी ११२२/ २१२१/ १२१२/ २२११/ आदि किसी भी कॉम्बिनेशन में लेने की छूट रहती है. ये छूट इसकी लय से मिलती है
खेत(21) खा ग (21)या (2) कंक (21) रीट (21) का (2) ये(2)  जंगल (22) कुल योग =22 (11 X 2)..शायद अब स्थिति स्पष्ट हो ..कंक्रीटों करने से 1 मात्रा बढ़ जाएगी और लय बिखर जाएगी.
सादर   
 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 17, 2015 at 8:00pm

आ० नूर भाई

मुझे तो अधिक् जानकारी  नहीं  है  पर भंडारी जी शायद  २२२२ के नजरिये  से  कंक्रीटों चाहते हों . आदरणीय   नियम  के अनुसार इस  शंका को दूर करना चाहें ताकि मेरा मार्ग दर्शन भी हो सके . सादर .

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 17, 2015 at 7:26pm

आ, गिरिराज जी.
कंकरीट पढ़ा है ..लय में कहीं मात्रा नहीं चूक रहा हूँ ..फिर भी एक बार और जाँच लेता हूँ.
'शहरीला' तो पोएटिक लिबर्टी है .... जैसे ज़हर से ज़हरीला वैसे शह्र से शहरीला .....
ये शब्द मेरे एक मित्र श्री राहुल वर्मा जी की ईजाद है और इसमें अपने आप बड़ा तंज़ है...
सादर  

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 17, 2015 at 7:09pm

आ0 नीलेश भाईजी, मुझे "है"  और "हैं"  संदेह था.  आप सही हैं.  नुक्ता भी मायने रखता है.  सादर,

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 17, 2015 at 7:05pm

आ0 नीलेश भाईजी,   अच्छी गजल हुई है.  दाद कुबूल करे. //क़िस्मत ने भी खेल अजब दिखलाए हैं 
पत्थर भी चमकीला होते देखा है.// इस शेर को पुन: देख ले.   सादर,


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 17, 2015 at 7:03pm

आदरणीय नीलेश भाई , बहुत बढ़िया गज़ल हुई है , आपको हार्दिक बधाइयाँ गज़ल के लिये ॥

खेत खा गया कंक्रीट का ये जंगल   --  कंक्रीटों करने से मात्रा सही आ जायेगी
गाँवों को शहरीला होते देखा है.   ---     शहरीला शब्द  का उपयोग  सही है क्या ?
 

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