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बह्र : २२ २२ २२ २

 

जीवन में कुछ बन पाते

हम इतने चालाक न थे

 

सच तो इक सा रहता है

मैं बोलूँ या वो बोले

 

पेट भरा था हम सबका

भूख समझ पाते कैसे

हारेंगे मज़लूम सदा

ये जीते या वो जीते

 

देख तुझे जीता हूँ मैं

मर जाता हूँ देख तुझे

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(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by मनोज अहसास on April 23, 2015 at 3:08pm
शुक्रिया सर
Comment by Samar kabeer on April 22, 2015 at 6:32pm
जनाब मनोज कुमार अहसास जी,आदाब,मिसाल के लिए धर्मेन्द्र जी को कोई शैर याद नहीं आ रहा,मुझे एक मतला याद है,शायद इससे आपकी तसल्ली हो जाए :-

ये जैसे बढ़ के अभी आसमान छू लेंगे
कहीं कहीं से यूँ फूटे हैं दस्त-ओ-पा फिर से
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 22, 2015 at 5:12pm
आ. मनोज साहब, ऐसी कोई ग़ज़ल मेरी जानकारी मे नहीं है। इसीलिए तो ये नियमों का पालन करते हुए एक नया प्रयोग है।
Comment by मनोज अहसास on April 22, 2015 at 4:05pm
जी साहब समाधान तो हो गया पर मन नहीं मान रहा है कृपिया किसी शायर की कोई मशहूर ग़ज़ल उदाहरण के रूप में बता दे
बड़ी कृपा होगी

सादर
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 22, 2015 at 10:23am

शुक्रिया आदरणीय विजय शंकर जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 22, 2015 at 10:22am

आ. मनोज कुमार साहब, ग़ज़ल में रदीफ़ का होना जरूरी नहीं होता। ऐसी ग़ज़ल को गैरमुरद्दफ़ ग़ज़ल कहते हैं। इसी तरह काफ़िया का तुकांत होना आवश्यक नहीं होता। जैसे ‘रहता’ और ‘तन्हा’ ग़ज़ल का काफ़िया बन सकते हैं यहाँ काफ़िया ‘अ’ या ‘अलिफ़’ पर टिकता है। उम्मीद है आपकी शंका का समाधान हो गया होगा।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 22, 2015 at 10:20am

बहुत बहुत शुक्रिया आ. मिथिलेश जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 22, 2015 at 10:20am

बहुत बहुत शुक्रिया आ. गिरिराज जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 22, 2015 at 10:19am

शुक्रिया वीनस भाई।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 22, 2015 at 10:19am

बहुत बहुत शुक्रिया जनाब समर साहब। 

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