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जी आदरणीय समर कबीर साहब.
कहीं इस बारे में कहीं पढ़ लिया था सो यहाँ कह दिया. किसी लेख में ये लिखा हुआ है इस विषय पर -"
तकाबुले रदीफ़ दोष के भेद
तकाबुले रदीफ़ दोष के दो भेद होते हैं तकाबुले रदीफ़ दोष
भेद १ - लाज्तमा-ए-ज़ुज्ब-ए-रदीफैन = मतला के अतिरिक्त यदि रदीफ़ का तुकांत स्वर मिसरा-ए- उला के अंत आ जाये तो उसे लाज्तमा-ए-ज़ुज्ब-ए-रादीफैन कहते हैं तकाबुले रदीफ़ दोष
भेद २ - लाज्तमा-ए-तकाबुल-ए-रदीफैन = मतला और हुस्ने मतला के अतिरिक्त किसी शेर में यदि रदीफ़ का तुकान्त पूरा एक शब्द या पूरी रदीफ़ मिसरा-ए-उला के अंत आ जाये तो उसे लाज्तमा-ए-तकाबुल-ए-रदीफैन कहते हैं शेर के दोषपूर्ण मतला होने भ्रम की स्थिति से बचने के लिए इस दोष से बचने की हर संभव कोशिश करनी चाहिए|
अरूजियों और उस्ताद शाइरों द्वारा केवल स्वर का उला के अंत में टकराना कई स्थितियों में स्वीकार्य बताया गया है यदि शेर खराब न हो रहा हो और यह ऐब दूर हो सके तो इससे अवश्य बचना चाहिए परन्तु इस दोष को दूर करने के चक्कर में शेर खराब हो जा रहा है अर्थात, अर्थ का अनर्थ हो जा रहा है, सहजता समाप्त ओ जा रही है अथवा लय भंग हो रहे है अथवा शब्द विन्यास गडबड हो रहा है तो इसे रखा जा सकता है और बड़े से बड़े शाइर के कलाम में यह दोष देखने को मिलता है"
इसके अतिरिक्त यदि कोई मान्यता हो तो मुझे ज्ञात नहीं है.
सादर
क्या छुपा कर रखा है सीने में
और होटों से बोलता क्या है
दिल को छू जाए तो ये जादू है
वरना आवाज़ नें धरा क्या है -- क्या बात है , आदरणीय समर भाई , बहुत खूब ग़ज़ल कही , हर शे र के लिये दाद हाज़िर है , कुबूल कीजिये ॥
बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है ग़ालिब की ज़मीन पर
दुश्मनी के लिए बचा क्या है...वाह वा...
.
दूसरे, पाँचवे और छठे शेर में तकाबुले-रदीफ़ को देख लें
सादर
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