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जनाब समर साहब, आपने मेरे संशय को सहृदयता से अनुमोदित कर मेरा मान बढ़ाया है. मैं हृदय की अतल गहराइयों से कृतज्ञ हूँ.
सादर
जनाब सौरभ पाँडे जी,आदाब,सारे विद्वान अलग और आप का मुक़ाम अलग,ग़ज़ल जल्दी में पोस्ट कर दी,इस ओर ध्यान ही नहीं गया,ग़ज़ल में आपकी शिर्कत देर से हुई,इस ओर ध्यान दिलाने के लिये आपका शुक्रगुज़ार हूँ |
मो. समर साहब, कहन पर तो कुछ कहना ही नहीं है. बस हर शेर अपने साथ बहाये जा रहा है.
हर एक मंज़िल पे देखा जाकर
वही सितारा वही गगन था.................. अब इस महीनी पर खुल के दाद न दूँ तो क्या करूँ !
या, फिर -
समझ के गुलशन की बात की थी
मुराद मेरी तिरा बदन था...................... वल्लाह !
कहन के लिहाज से बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है.
लेकिन चूँकि बहर के चार अर्कान दो-दो की बराबरी पर हैं तो फिर शिकस्तेनारवा’ का ऐब ज़रूर ध्यान में रखना था. जाने क्यों अच्छे-अच्छे विद्वान शाइर आ चुके हैं इस ग़ज़ल पर, मगर मैं किसी की निग़ाह इस ओर पड़ती नहीं देख रहा हूँ.
ग़ज़ल के कई मिसरे, यहाँ तक मतला भी, इस ऐब के शिकार हैं. कृपया देख लीजियेगा.
या मैं ही गलत हूँ ?
सादर
कहाँ तलक उससे बच के चलते
वो डाली डाली चमन चमन था...बढ़़िया.बधाई
बहुत बढ़िया आदरणीय समर कबीर जी मेरी हार्दिक शुभकामनायें स्वीकार करें सादर
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