हो चुकी हो तुम एक पाषाण
वो एहसासों की लहरों पे तैरना
धड़कनों को खामोशीओं में सुनना
होठों को छू लेने की तड़प
आगोश में भर लेने की चसक
सब रेत के घरोंदे थे .........
रेत के इन घरोंदों को
तूफ़ान से पहले क्यूँ खुद ही ढाना पड़ता है !
चादर में ग़मों की फटन को
वक़्त के धागे से क्यूँ ख़ुद ही सीना पड़ता है !
नींद के आगोश में
मरे हुए ख़वाबों को क्यूँ खुद ही ढोना पड़ता है !
उमंगों के उड़ते परिंदों को
दर्द के दरिया में क्यूँ ख़ुद ही डुबोना पड़ता है !
पाषाण नहीं पिघलते कभी ......
बार बार ये बात ख़ुद को समझाना पड़ता है !!
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मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय 'जान' साब ....सराहना हेतु आभार ...(सर कह कर इतना ना चढायें गिरने पे चोट लग सकती है ....हाहा ...)
आदरणीय शिज्जु "शकूर" जी उत्साहवर्धन हेतु बहुत बहुत आभार....सादर
सुन्दर कविता पर मुबारकबाद आदरणीय 'इन्तजार' सर जी!
भावपूर्ण रचना है सेठी जी बहुत बहुत बधाई आपको
आदरणीय Shyam Narain Verma जी पसंदगी के लिये हार्दिक धन्यवाद
आदरणीय Dr. Vijai Shanker जी आपको अच्छी लगी ...प्रोत्साहन के लिये बहुत बहुत आभार
आदरणीय Er. Ganesh Jee "Bagi" जी मार्गदर्शन करते रहें ...सराहना हेतु बहुत बहुत आभार
आदरणीय जितेन्द्र पस्टारिया जी बहुत बहुत धन्यवाद
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति iहार्दिक बधाई .... |
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