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चार दिन की चांदनी (लघुकथा)

श्रेया अपने से बड़ी उम्र के,अत्यंत आकर्षक एवं विवाहित बॉस रजत के प्रेम में पड़कर ज़माने को भूल बैठी। माँ व भाई ने कितना समझाया, विवाह के लिए,पर वह तो कुछ सुनने को तैयार ही न थी। अलग फ्लैट लेकर रहती थी,जहाँ सुविधा के अनुसार रजत आकर उसके साथ वक़्त बिताते थे।

उस दिन वह ज्वर से तप रही थी। रजत को पता लगा तो तुरंत भागे चले आये।श्रेया को उनका साथ बहुत अच्छा लग रहा था।
तभी मोबाइल बज उठा । उन्होंने दूसरी ओर से जो कहा गया सुना,
फिर उठते हुए कहा - "सॉरी श्रेया-आज तुम्हारे पास नहीं रुक पाउँगा-बेटे को चोट लग गई है-मुझे घर जाना होगा"

" पर मुझे भी तो...."-- उसने ऐतराज़ करना चाहा ।
"प्लीज़ ग्रोन अप नाओ .....अब तुम्हारे लिए अपना परिवार तो नहीं छोड़ सकता न "-- कहते हुए वे तेजी से बाहर निकल गए ।


ज्योत्स्ना !!
( मौलिक एवम् अप्रकाशित )

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Comment by JAWAHAR LAL SINGH on April 28, 2015 at 11:41am

आँख खुल जानी चाहिए अब भी 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 28, 2015 at 9:57am

अक्सर इंसान अपनी जिद और स्वतंत्र ख्यालों में जीना चाहता है. यह स्थिति बिलकुल बच्चों जैसी होती है समझाने पर भी नहीं समझना. बहुत बढ़िया विषय पर सुंदर प्रस्तुति आदरनीय ज्योत्स्ना जी

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 27, 2015 at 8:02pm

वाह आदरणीया

यथार्थ रचना . बधाई हो .

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 27, 2015 at 5:57pm
एक स्वाभाविक दृश्य।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 27, 2015 at 1:19pm

आदरणीया ज्योत्स्ना जी इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई 

पंच लाइन अपना प्रभाव छोड़ती है. सफल लघुकथा.

कृपया ध्यान दे...

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