पूरी जवानी उसने नशे और जुएँ की लत और बाप की नीली बत्ती के रौब में होम कर दी ।
"अभी माँ व बाप को मरे अभी साल भर ही नहीं हुआ, और तुम्हारा नशे में यूँ दिन रात झूमना , आखिर तुम कब इसे छोड़ोगे ?
देखना रमन ! यह ड्रग्स कभी तुम्हारी जान ले के छोड़ेगी आज घर की एक एक चीज नीलाम हो चुकी है , यहाँ तक की नाते-रिश्तेदार , नौकर चाकर सब साथ छोड़ कर चले गये । मैं तुमसे तंग आ चुकी हूँ अब तुम्हारे साथ और नहीं निभा सकती ।"
"हाँ हाँ यहाँ भी कौन रोज तुम्हारा मुंह देखना चाहता है " रमन ने जोर से चिल्लाते हुए कहा ।
" मैं भी तुम्हारी इन रोज की बकझक से तंग आगया हूँ अगर साथ नहीं रह सकती तो जहाँ जाना चाहो जिसके साथ जाना चाहो जा सकतीं हो मेरी तरफ से तुम आजाद हो संध्या " ।
" बस बहुत हुआ अब चुप भी करो रमन " संध्या ने गुस्से से काँपते हुए होंठो से कहा ।
आखिर एक रात वह अपनी दूधमुही बच्ची को साथ लेकर रमन का घर सदा के लिए छोड़ कर चली गई । आज वह हस्पताल के जनरल वार्ड की छतों को ताकते हुए अपने जीवन की अंतिम साँसों को गिन रहा है , एक जिंदा लाश की तरह ।
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"मौलिक व अप्रकाशित "
Comment
धन्यवाद आदरणीय Omprakash Kshatriya ji
जी , आ. Aman Kumar जी , मैं आपसे सहमत हूँ ।धन्यवाद
धन्यवाद आ. जितेंद्र पस्टारिया जी।
धन्यवाद आ. Saurabh Pandey जी , यह मेरी दूसरी रचना है , आशा करता हूँ कि मैं आप लोंगो की अपेक्षा में खरा उतरूं।
आपकी किसी पहली प्रस्तुति से मैं गुजर रहा हूँ. इस प्रयास पर हार्दिक शुभकामनाएँ ..
आदरणीय गोपाल नरायनजी के कहे का संज्ञान लें.
शुभेच्छाएँ.
प्रस्तुति पर बधाई, आदरणीय पंकज जी
.........महिला का ये हाल केसे हुया ?सुधार का प्रयास ? घर छोड़ने का फैसला जल्दी बाज़ी था क्या ? कुछ तो था आपके अंदर रह गया जिसे शव्द नही मिले !
आभार
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी उत्साह वर्धन करने के लिए धन्यवाद , सादर
आदरणीय Dr Vijay Shankar ji , धन्यवाद , सादर
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