दर्द के दरिया में सब कुछ खारा है
तुम ना जानो ...
क्यूंकि ये दर्द तो हमारा है
वो जो परिंदा इसमें डूबा है
इसे तुमने ही वहां उतारा है !
मगर समंदर के खारे पानी में
मछलियाँ ख़ुशी से तैर रही हैं
एक दूजे से खेल रही हैं
दुखी नज़र नहीं आतीं वो
यहाँ से निकलने का कोई
उतावलापन भी नहीं दिखता उन्हें
और अगले पल की फिक्र भी नहीं !
मैं भी तो मछली बन सकता हूँ
मुठ्ठी ढीली छोड़
ग़मों को आज़ाद कर सकता हूँ
और पकड़ सकता हूँ
कुछ छोटी छोटी खुशियाँ
और जी सकता हूँ
इस दर्द के समंदर में
एक मछली की तरहां
सीख ले 'इंतज़ार' इन मछलिओं से
खारे पानी में भी मिठास होती है !!
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मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय जितेन्द्र पस्टारिया जी बहुत बहुत धन्यवाद पसंदगी के लिये ...सादर
आदरणीय कृष्णा जी हार्दिक आभार प्रोत्साहन हेतु ...सादर
वाह आदरणीय इन्तजार सर बेहतरीन कविता हुयी है,आपकी सोच का मैं कायल हूँ!नमन!
संघर्षमय जीवन में सकारात्मकता ढूढ लाई, आपकी इन सफल पंक्तियों पर ह्रदय से बधाई ,आदरणीय मोहन जी
आदरणीय shree suneel जी आप की उपस्थिति और सराहना के लिये आभार ...सादर
आदरणीय Samar kabeer जी तहेदिल से शुक्रिया पसंदगी के लिये ...सादर
आदरणीय Dr. Vijai Shanker जी पसन्दगी के लिये बहुत बहुत धन्यवाद ....मंगलकामनाएँ
आदरणीय Nilesh Shevgaonkar जी आपसे सकारात्मक टिप्पणी पा कर बहुत अच्छा लगा ....हार्दिक आभार ...सादर
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