गौमाता का दर्द
कल जब देखा मैंने गौमाता की ओर मेरी ऑंखें भर आई
आंसू थे उनकी पलकों के नीचे , जैसे ही वह मेरे पास आई
गुम-सुम सी होकर देख रही थी मेरी ओर
रम्भा कर ही सही "मगर कह रही थी कुछ और"
हे मानव तुम चाहते क्या हो मुझ से ?
क्या संतुष्ट नहीं तुम इतने सुख से ?
धुप-छांव में दिन रात गुजारूं
बिना किसी ईंधन के वाहन की तरह रोज़ मैं चलती हूँ
खाने को जो भी मिले
ख़ुशी ख़ुशी चर लेती हूँ
कचरे की पेटी में पड़ा तुम्हारा झुटा भोजन खा लेती हूँ
घास में न पानी डालो फिर भी सुखी घास खा लेती हु
सिंघ से अपने सभी दुश्मनो को भगा देती हूँ
सड़क-नालों पर पड़ा गन्दा पानी पी लेती हूँ
लाठी- पत्थर से प्रहार तुम्हारे घर आऊँ तो सह लेती हूँ
फिर भी हर सुबह तुम्हे अपने बालक के बदले का दूध देती हूँ
बड़े होने पर अपने बेटे को तुम्हारा वाहन बना देखती हूँ
आऊँ जो तुम्हारे घर के बाहर लगे पेड़ के पत्तों को खाने तो तुम्हारी मार-फटकार ही पाती हूँ
नव युवा बालकों से "चल भाग यहाँ से" ही सुनती हूँ
रंग भले ही कैसा हो दूध सफ़ेद ही देती हूँ
तुम्हारी माँ तो गिनती के कुछ वर्ष... मगर मैं जीवन भर देती हूँ
दूध न देने लगूं गर तो कत्ल खाने में भेज दी जाती हूँ
बस कृष्ण जी के साथ लगे चित्र में या मंदिर में गोपी के रूप में पूजी जाती हूँ
यही दिखाता है इंसानों .... हो चुके तुम कितने स्वार्थी हो
अपनी माँ को मत भूलो उसके रथ के अब तुम ही सारथी हो |
मौलिक एवं अप्रकाशित
रोहित दुबे
Comment
jee
आदरणीय सौरभ जी ने सब कुछ कह दिया i भावुक होना अलग बात है और उस भावुकता को सही शब्द देना अलग i आप से प्रयास अपेक्षित है . सादर .
Dhanyavad
भाईजी, आपका प्रयास संवेदनापूरित है. किन्तु इस प्रस्तुति को कविता होना बाकी है. आपकी संभावनायें आश्वस्त तो कर रही हैं लेकिन पहल आपको ही करनी होगी, एक गंभीर पाठक बन कर.
शुभेच्छाएँ
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