समय कितना बदल गया है. वो दिन थे जब शरीर तोड़कर उतना ही पैदा कर पाता था, कि साल भर अपने परिवार का पेट भर सके.. अगर चार दिन को कोई मेहमान आ जाए तो आस-पड़ोस से उधार मांग लाता. और खूब से खूब इस बार के कर्ज के गड्डे को भर, फिर खुदाई शुरू कर देता..
आज भरपूर बिजली, पानी और कम ब्याज पर सरकारी ऋण से पैदावार बहुत बड़ गई है, अश्विन और बैशाख के माह में हर तरफ अनाज ही अनाज. खुशियों के सपने संजोये, बैलगाड़ी की जगह ट्रकों से अनाज लेकर उपार्जन केंद्र पर खड़ा है..
“ बाबूजी!! यह रहा मेरा पंजीयन. जल्दी से मेरा अनाज तुलवा दीजिये..”
“ सुनो! भाई.. यहाँ बहुत दिक्कते है, बहुत सारी अव्यवस्थायें है. आपको कुछ दिन रुकना पड़ेगा..”
“ लेकिन बाबूजी, कई दिनों से इन्तजार कर रहें है. कब तक खाली हाथ लौटें..”
“ तो मैं क्या करूँ..भैया ? क्यों इतना पैदा कर रहे हो कि पूरा तंत्र ही परेशान हो गया..”
एक शासकीय मुलाजिम की यह बात सुन, उसे अपनी संतुष्टि भरी अवनति याद आ गई...
जितेन्द्र पस्टारिया
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय जीतेन्द्र जी इस शानदार लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई सादर
/तो मैं क्या करूँ..भैया ? क्यों इतना पैदा कर रहे हो कि पूरा तंत्र ही परेशान हो गया../ जोरदार व झन्नाटेदार । बधाई
आपकी बधाई सहर्ष स्वीकार है आदरणीय डा.विजय जी. आपकी उपस्थिति हेतु आपका आभारी हूँ
सादर!
आपका बहुत-बहुत आभार, आदरणीया ज्योत्स्ना जी
सादर!
आपकी संतोषजनक प्रतिक्रिया लघुकथा को सार्थकता प्रदान करती है ,आदरणीय मिथिलेश जी. आपका हार्दिक आभार
सादर!
प्रोत्साहन व् सराहना हेतु आपका ह्रदय से आभारी हूँ, आदरणीय वीर मेहता जी
सादर!
आपका बहुत-बहुत आभार, आदरणीय मनोज जी
सादर!
आपकी उत्साहवर्धक सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय मोहिन्दर जी
सादर!
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