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समय कितना बदल गया है. वो दिन थे जब शरीर तोड़कर उतना ही पैदा कर पाता था, कि साल भर अपने परिवार का पेट भर सके.. अगर चार दिन को कोई मेहमान आ जाए तो आस-पड़ोस से उधार मांग लाता. और खूब से खूब इस बार के कर्ज के गड्डे को भर, फिर खुदाई शुरू कर देता..

आज भरपूर बिजली, पानी और कम ब्याज पर सरकारी ऋण से पैदावार बहुत बड़ गई है, अश्विन और बैशाख के माह में हर तरफ अनाज ही अनाज. खुशियों के सपने संजोये,  बैलगाड़ी की जगह ट्रकों से अनाज लेकर उपार्जन केंद्र पर खड़ा है..

“ बाबूजी!! यह रहा मेरा पंजीयन. जल्दी से  मेरा अनाज तुलवा दीजिये..”

“ सुनो! भाई.. यहाँ बहुत दिक्कते है, बहुत सारी अव्यवस्थायें है. आपको कुछ दिन रुकना पड़ेगा..”

“ लेकिन बाबूजी, कई दिनों से इन्तजार कर रहें है. कब तक खाली हाथ लौटें..”

“ तो मैं क्या करूँ..भैया ? क्यों इतना पैदा कर रहे हो कि पूरा तंत्र ही परेशान हो गया..”  

एक शासकीय मुलाजिम की यह बात सुन, उसे अपनी संतुष्टि भरी अवनति याद आ गई...

 

 

   जितेन्द्र पस्टारिया

(मौलिक व् अप्रकाशित)

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Comment by मिथिलेश वामनकर on May 6, 2015 at 5:53pm

आदरणीय जितेन्द्र जी इस बेहतरीन और सफल लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई 

एक सार्थक प्रस्तुति के लिए आभार. 

शासकीय तंत्र की कार्यप्रणाली और कार्यरत लोकसेवको की मानसिकता पर जोरदार कटाक्ष 

पंच लाइन दमदार है और अपना सघन प्रभाव छोड़ रही है.

बड़ को बढ़ कर लीजियेगा.

Comment by VIRENDER VEER MEHTA on May 6, 2015 at 2:49pm

आदरणीय जीतेंदर भाई.. सरकारी तंत्र के कार्य पर कटाक्ष करती बहुत ही सुन्दर कथा ......

सादर बधाई स्वीकार करे,

Comment by मनोज अहसास on May 6, 2015 at 2:46pm
एक छिपा हुआ दर्द
बहुत बढ़िया
सादर
Comment by Mohinder Kumar on May 6, 2015 at 2:08pm

सरकारी कार्य प्रणाली पर आघात करती एक सार्थक रचना जिसमेँ एक किसान नागरिक का दुख छिपा है... लिखते रहिये आदरणीय जितेन्द्र जी 

कृपया ध्यान दे...

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