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ये कैसी महफिल में आ गया हूँ , हरेक इंसा , डरा हुआ है
सभी की आँखों में पट्टियाँ हैं , ज़बाँ पे ताला जड़ा हुआ है
कहीं पे चीखें सुनाई देतीं , कहीं पे जलसा सजा हुआ है
कहीं पे रौशन है रात दिन सा , कहीं अँधेरा अड़ा हुआ है
ये आन्धियाँ भी बड़ी गज़ब थीं , तमाम बस्ती उजड़ गई पर
दरे ख़ुदा में झुका जो तिनका , वो देखो अब भी बचा हुआ है
हरेक बज़्में तरब के कारण , न जाने कितनी ग़मी है यारों
उठा हुआ है जो आसमाँ तक , किसी गदा पर ख़ड़ा हुआ है
यहाँ हवाओं की खुश्बुओं में , क्यों याद आयी , मेरी ज़मीं की
ज़रा सा खोदो तो इस ज़मीं को , कहीं पे माज़ी गड़ा हुआ है
जहाँ पे मुद्दत की प्यास चुप है , वहाँ बग़ावत सुलग न जाये
के अब हथेली बने न मुठ्ठी , डर एक उनको बना हुआ है
अजब अँधेरे में इस फ़ज़ा के , ये रोशनी सी कहाँ से आई
ये रूह किसकी हुई है रोशन , चराग़ किसका जला हुआ है
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय नीलेश भाई , आपकी ग़ज़ल पर उपस्थिति और उचित सलाहों के लिये बहुत शुक्रिया । कुछ सुधार जो अभी सूझ रहे हैं मै अभी कर रहा हूँ । पुनः आभार ॥
आदरणीय कृष्णा भाई , आपकी नवाजिश का बहुत शुक्रिया ॥
ये आन्धियाँ भी बड़ी गज़ब थीं , तमाम बस्ती उजड़ गई पर
दरे ख़ुदा में झुका जो तिनका , वो देखो अब भी बचा हुआ है
खूबसूरत भाव , प्रेरक , शिक्षाप्रद और सुन्दर गजल ...बधाई
भ्रमर ५
बहुत सुंदर भाव पिरोए हैं आपने ग़ज़ल में. आपको बधाई
हरेक सहमा , डरा हुआ है में कुछ अस्पष्टता है ..हरेक इंसाँ डरा हुआ है कर के देख सकते हैं .
कहीं पे रौशन है रात दिन सा में लिंग बदल गया वाक्य का यूँ कर सकते हैं कहीं पे रौशन है रात सा दिन
ये आन्धियाँ भी बड़ी गज़ब थीं , तमाम बस्ती उजड़ गई पर
दरे ख़ुदा में झुका जो तिनका , वो देखो अब भी बचा हुआ है
बहुत भावपूर्ण शेर है ..विशेष बधाई
हरेक बज़्में तरब के कारण , न जाने कितनी ग़मी है यारों
उठा हुआ है जो आसमाँ तक , वो लाश ऊपर ख़ड़ा हुआ है.....अच्छा भाव है लेकिन ग़ज़ल में लाश जैसे शब्द का प्रयोग थोडा खल रहा है.
अजीब अँधेरे में इस फ़ज़ा के इस बेबह्र कर रहा है मिसरे को
ये रूह किसकी हुई (है) रोशन ...
कठिन बहर पर अच्छा काम किया है.
आपको बधाई फिर एक बार
सादर
वाह ! वाह! वाह! आदरणीय बहुत ही लाजवाब गजल हुई है अभिनन्दन!
ये शेर विशेष पसंद आये--
यहाँ हवाओं की खुश्बुओं में , क्यों याद आयी , मेरी ज़मीं की
ज़रा सा खोदो तो इस ज़मीं को , कहीं पे माज़ी गड़ा हुआ है लाजवाब!
जहाँ पे मुद्दत की प्यास चुप है , वहाँ बग़ावत सुलग न जाये
के अब हथेली बने न मुठ्ठी , डर एक उनको बना हुआ है वाह! वाह! वाह! बेहद उम्दा
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