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गज़ल - बहक ही जाने दो मुझको, कि अब बचा क्या है ( गिरिराज भंडारी )

1212   1122   1212   22  /112

चली गई मेरी मंज़िल कहीं पे चल के क्या

या रह गया मैं कहीं और ही बहल के क्या

 

वहाँ पे गाँव था मेरा जहाँ दुकानें हैं  

किसी से पूछता हूँ , देख लूँ टहल के क्या

 

असर बनावटी टिकता कहाँ था देरी तक

वही पलों में तुम्हें रख दिया बदल के क्या

 

हरेक हाथ में पत्थर छुपा हुआ देखा

ये गाँव फिर से रहेगा कभी दहल के क्या

 

मेरा ये घर सही मिट्टी, मगर ये मेरा है

मुझे न पूछ थे अरमाँ कभी महल के क्या

 

मुझे लगा कि अब , सूरज उदास रहता है

चलो तो पूछें, वो रोता रहा था ढल के क्या

 

बहक ही जाने दो मुझको, कि अब बचा क्या है

ये लम्हें आखिरी हैं अब करूँ सँभल के क्या

 

परों का साथ नहीं है जिसे उड़ानों में

तुम्हीं कहो वो करे फर्श पे उछल के क्या 

************************************** 

मौलिक एवँ अप्रकाशित 

 

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 15, 2015 at 12:04pm

आदरणीय गिरिराजभाईजी,
आपके पास अचार के लिए माल भी है और आवश्यक मसाला (अनुभव, भाव और शब्द) भी हैं. बस उनकी आनुपातिकता को तय करना है और पगने देना है.  आप धूप में मर्तबान को छोड़िये और रोज़ थोड़ा-थोड़ा हिलाते रहिये, चलाते रहिये.

पानी या नमी (तुरत प्रकाशित कर देने की ललक) से इसे एकदम से बचा कर रखिये. देखियेगा, कुछ दिनों में स्वादिष्ट अचार तैयार जिसके चटखारे पर आपके चाहने वाले मर मिटेंगे.

मैं उनकी बात नहीं कर रहा जिन्हें अचार के नाम से ही अलसर होने का शुबहा हो जाता है. या, जो अचार-अचार में फ़र्क़ करते हैं, आम का सही, सूरन का बेकार, मसालेदार मिर्ची वाह-वाह, नींबू वाला सत्यानाश... हा हा हा...


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 15, 2015 at 10:16am

आदरणीया सविता जी , सराहना के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 15, 2015 at 10:15am

आदरणीय सौरभ भाई , हौसला अफज़ाई और सटीक मशविरे के लिये  आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥  आदरणीय अचार बना सकूँ ये मेरी भी इच्छा है , पर मसाला क्या डालूँ ये तो आप  गुणि जन ही बतायेंगे न ! बस कृपा दृष्टि बनी रहे  धीरे धीरे सुधर जाऊँगा ॥ पुनः आभार आपका ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 15, 2015 at 10:10am

आदरणीया कांता  जी , उत्साह  वर्धन एक लिये आपका दिल से आभारी हूँ ॥

Comment by savitamishra on May 14, 2015 at 10:45pm

आदरणीय भैया बहुत सुन्दर गजल ..सादर नमस्ते


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 14, 2015 at 10:42pm

एक बहुत ही अच्छी ग़ज़ल जिसे और पगना था. अब अपनी ग़ज़ल को अचार की तरह पगाइये आदरणीय.
सादर

Comment by kanta roy on May 11, 2015 at 12:08am
असर बनावटी टिकता कहाँ था देरी तक
वही पलों में तुम्हें रख दिया बदल के क्या.....हर शेर लाजवाब है .....भावों का समंदर है ..... दिल को जो छू ले वही है जज्बातों को ....... बेहतरीन गजल बनी है आदरणीय गिरीराज भंडारी जी बधाई स्वीकार करें

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 10, 2015 at 9:00pm

आदरणीय श्री सुनील भाई,  ग़ज़ल की सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका आभारी हूँ ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 10, 2015 at 8:59pm

आदरणीय केवल भाई जी , उत्साह वर्धन के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 10, 2015 at 8:59pm

आदरणीय बड़े भाई , आपका बहुत बहुत आभार ।

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