मध्य अपने जम गयी क्यों बर्फ़.. गलनी चाहिये
कुछ सुनूँ मैं, कुछ सुनो तुम, बात चलनी चाहिये
खींचता है ये ज़माना यदि लकीरें हर तरफ
फूल वाली क्यारियों में वो बदलनी चाहिये
ध्यान की अवधारणा है, ’वृत्तियों में संतुलन’
उस प्रखरतम मौन पल की सोच फलनी चाहिये !
हो सके तो बन्द सारी खिड़कियाँ हम खोल दें
अब शहर में ज़िन्दग़ी की साँस चलनी चाहिये
देश के उत्थान की चिंता करे सरकार ही ?
राष्ट्र-हित की आग तो हर दिल में’ जलनी चाहिये
भेद मत्सर औ’ घृणा के रोक ले अवशिष्ट जो-
हाथ में हर नागरिक के एक छलनी चाहिये
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-सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
बात कुछ है वीनसभाई, उभर कर आने दीजिये. मेरे उस कहे को लेकर अन्यथा सोचने की ऐसी और इतनी आवश्यकता है क्या ? ऐसी अतुकान्त सोच होनी चाहिये ? आपने जो कहा, उसी पर मैंने अपनी हामी भर दी. क्यों या क्या नकारा गया लग गया ? इस तरह से प्रयुक्त विन्दु अनावश्यक चर्चा का कारण हो जाते हैं जो अनावश्यक संकेत देने लगते है. मुझे आपसे लम्बी-लम्बी बातें करने का बहुत लम्बा अनुभव रहा है. सब सार्थक हो.
भाई, मैं तो वाकई दंग हूँ.
आदरणीया सीमाजी, आपकी यह टिप्पणी विशुद्ध रूप से इस प्रस्तुति पर इस प्रस्तुति केलिए और इस प्रस्तुति की सीमा में ही है. आपने मेरे लिखने की शैली को डिस्टिंक्ट कर मेरी रचना को अतिशय मान दिया है. यह मेरे लिए आश्वस्तिकारक है. वस्तुतः यह एक दायित्व भी है.
इस मुखर अनुमोदन केलिए सादर आभार, आदरणीया.
//प्रयोगवादी होना अथवा न होना रचनाकार की सहजता अथवा असहजता से तय नहीं होता है ये विधा विशेष में सामान्य व्यवहार की रचनाओं से तुलना करके तय होता है.//
अब जो कुछ लिखा जायेगा, उसका कोई न कोई रूप तो होगा ही. यह देखना आवश्यक होना चाहिये कि क्या उस लिखाई और रचनाकार में निरंतरता है ?
//मैं और आप (इस मैं और आप में शाइर बिरादरी को शामिल समझें) क्या ख़ालिस उर्दू बोल और लिख पायेंगे हिन्दुस्तान में रहते हुए अब ख़ालिस उर्दू बोलने की क्षमता तो मौलवियों में भी नहीं रह गयी है ... आज ग़ज़ल उस ज़बान में कही जा रही है जिसे महात्मा गांधी ने "हिन्दुस्तानी" संज्ञा दी थी ..."उर्दू भाषा की ग़ज़ल" कहने का भ्रम पाले लोग बैठे अपना मजीरा बजाते रहें ...//
यह कह्ने के लिए कहा गया तथ्य है. वर्ना उर्दू शब्दों और तदनुरूप भाषा-बिम्बों को लेकर ’ग़ज़लकारों’ के मजीरे बजते ही रहे हैं. और, अपने-अपने वाद्य बजा कर अन्य शैलियों के रचनाकार/ ग़ज़लकार उनकी बार-बार अनसुना भी करते रहे हैं. यह अनसुना करना देखा जाय तो आज ग़ज़ल के व्यापक प्रचार-प्रसार का बहुत बड़ा कारण साबित हुआ है.
//भाषा जिस तेज़ी से बदल रहा है अगर यही रफ़्तार रही तो हमें "हिन्दी" और "उर्दू" के बीच "हिन्दुस्तानी" संज्ञा को स्थापित करने की कोशिश छोड़ कर "हिन्दुस्तानी" और अंग्रेजी भाषा की खिचडी भाषा के लिए संज्ञा खोजनी पड़ेगी..
क्या आप ध्यान नहीं देते ... "जोडीज़", "डांसने", "मसाला-ए-मैजिक", अनारकलीज़ जैसे शब्द किस तरह हमारे जीवन में घुसपैठ करते जा रहे हैं .. . हो सकता है इस तरह के शब्द आपको ये खराब लगते हों, मुझे भी इनसे घिन आती थी मगर जब गहन विचार किया तो पाया अगर हम इन्हें स्वीकार नहीं करेंगे भाषा अपने बदलते स्वरूप के साथ आगे बढ़ जायेगी और हम पिछड़ जायेंगे //
इस विन्दु पर हम एकदम से कूद न पड़ें, लेकिन यह सत्य है कि भाषा करवट ले रही है. ऐसा किन्तु सदा से होता रहा है. जीवित भाषा ही करवट लेती है.
// ये तय जानिये इस बदलाव को तब ७० - ८० साल लगे अब संचार क्रान्ति युग में अगला बदलाव २०-२५ साल में होगा.. कोई आश्चर्य नहीं कि २० साल बाद हम शायरों और काफियों भूलने लगें और "शायर्स" और "काफियाज़" जैसे अंग्रजी के व्याकरण के साथ संक्रमित शब्दों को इस्तेमाल करते पाए जाएँ .... //
१. अवश्य.
२. संभवतः..
// ये हमें तय करना है कि हमें आगे बढ़ना है या पीछे जाना है .. आज संस्कृत की रचनाओं का क्या हाल है .. //
मात्र पाठकीयता और व्यावसायिकता किसी रचना के महान होने या सतही होने का मानक नहीं है. अतः इस विषय पर यों मंतव्य न बनाया जाय. हर युग और काल-खण्ड की भाषा और तदनुरूप साहित्यिक व्यवहार विशिष्ट हुआ करता है. तभी तो यह लोकोक्ति स्वर पा सकी - "पढ़े फ़ारसी बेचे तेल.. देखो यह कुदरत का खेल"
//आज वाल्मीकि रामायण को कितने लोग पढ़ते हैं और उससे भी बड़ा प्रश्न ये है कि जो पढ़ते भी हैं वो कितना समझते है ? क्या किसी से छुपा है कि आज की पीढी जय शंकर प्रसाद की रचना भी नहीं पढ़ना चाहती मगर उसी समय के प्रेमचंद्र को आज भी सबसे अधिक पढ़ा जाता है //
यह एक मंतव्य से प्राण पाता हुआ विन्दु है अतः इसकी गहनता संदिग्ध है. तथ्यपरकता विचारणीय.
// भाषा के इस बदलाव को ले कर एक लेख की पृष्ठभूमि तैयार है , अगर वक्त मिला तो बाकी बातें उस लेख में प्रस्तुत करूंगा ...//
तो कुल बात और इस बात के विन्दु यहाँ हैं !
तब तो अवश्य ही -- शुभ-शुभ
हो सके तो बन्द सारी खिड़कियाँ हम खोल दें
अब शहर में ज़िन्दग़ी की साँस चलनी चाहिये
देश के उत्थान की चिंता करे सरकार ही ?
राष्ट्र-हित की आग तो हर दिल में’ जलनी चाहिये
पूरी ग़ज़ल में आपकी छाप स्पष्ट रूप से मौजूद है ...पर इन दो शेर के लिए आपको विशेष रूप से बधाई दूंगी
आदरणीय,
प्रयोगवादी होना अथवा न होना रचनाकार की सहजता अथवा असहजता से तय नहीं होता है
ये विधा विशेष में सामान्य व्यवहार की रचनाओं से तुलना करके तय होता है....
मैं और आप (इस मैं और आप में शाइर बिरादरी को शामिल समझें) क्या ख़ालिस उर्दू बोल और लिख पायेंगे हिन्दुस्तान में रहते हुए अब ख़ालिस उर्दू बोलने की क्षमता तो मौलवियों में भी नहीं रह गयी है ...
आज ग़ज़ल उस ज़बान में कही जा रही है जिसे महात्मा गांधी ने "हिन्दुस्तानी" संज्ञा दी थी ...
"उर्दू भाषा की ग़ज़ल" कहने का भ्रम पाले लोग बैठे अपना मजीरा बजाते रहें ...
भाषा जिस तेज़ी से बदल रहा है अगर यही रफ़्तार रही तो हमें "हिन्दी" और "उर्दू" के बीच "हिन्दुस्तानी" संज्ञा को स्थापित करने की कोशिश छोड़ कर "हिन्दुस्तानी" और अंग्रेजी भाषा की खिचडी भाषा के लिए संज्ञा खोजनी पड़ेगी
क्या आप ध्यान नहीं देते ... "जोडीज़", "डांसने", "मसाला-ए-मैजिक", अनारकलीज़ जैसे शब्द किस तरह हमारे जीवन में घुसपैठ करते जा रहे हैं
हो सकता है इस तरह के शब्द आपको ये खराब लगते हों, मुझे भी इनसे घिन आती थी मगर जब गहन विचार किया तो पाया अगर हम इन्हें स्वीकार नहीं करेंगे भाषा अपने बदलते स्वरूप के साथ आगे बढ़ जायेगी और हम पिछड़ जायेंगे
बहुत समय नहीं बीता है बीसवीं सदी की शुरुआत में जब "शुअरा" को "शायरों", "कवाफ़ी" को "काफियों" बनाया जा रहा होगा तो उस समय के उर्दूदा को भी इन हिन्दी व्याकरण से संक्रमित हुए शब्दों से घिन आती रही होगी मगर बीसवीं सदी समाप्त होते होते हम शुअरा और कवाफ़ी शब्द को भुला चुके हैं और शायरों और काफियों को ही उयोग करना उचित समझते हैं
ये तय जानिये इस बदलाव को तब ७० - ८० साल लगे अब संचार क्रान्ति युग में अगला बदलाव २०-२५ साल में होगा
कोई आश्चर्य नहीं कि २० साल बाद हम शायरों और काफियों भूलने लगें और "शायर्स" और "काफियाज़" जैसे अंग्रजी के व्याकरण के साथ संक्रमित शब्दों को इस्तेमाल करते पाए जाएँ ....
ये हमें तय करना है कि हमें आगे बढ़ना है या पीछे जाना है
आज संस्कृत की रचनाओं का क्या हाल है
आज वाल्मीकि रामायण को कितने लोग पढ़ते हैं और उससे भी बड़ा प्रश्न ये है कि जो पढ़ते भी हैं वो कितना समझते है ?
क्या किसी से छुपा है कि आज की पीढी जय शंकर प्रसाद की रचना भी नहीं पढ़ना चाहती मगर उसी समय के प्रेमचंद्र को आज भी सबसे अधिक पढ़ा जाता है
भाषा के इस बदलाव को ले कर एक लेख की पृष्ठभूमि तैयार है , अगर वक्त मिला तो बाकी बातें उस लेख में प्रस्तुत करूंगा ...
सादर
१ - कोई प्रयोग नहीं करता.
अर्थात, हम जो कुछ लिखते हैं / लिख पाते हैं, वो हमारे लिए सहज संप्रेषण है. हम भावभूमि की भी बात इसी अर्थ में करते हैं. यह प्रयोग न हो कर हमारी प्रस्तुति समझी जाये. अब किसी को अलग दिखता है तो यह एक नज़रिया हो सकता है.
२ - यह अवश्य है कि सामान्य नज़रिये से जिन रचनाओं को ’ग़ज़लें’ कहने का प्रचलन है, वैसी रचनाएँ मैं नहीं करता, न वैसे शब्दों का प्रयोग करता हूँ.
यह अलग बात नहीं हुई न.
इसे ऐसे देखें - ग़ज़लों के नाम पर उर्दू के शब्द, उर्दू लिपि के नियमों को जिस तरीके प्रयुक्त करने का ’प्रचलन’ बना हुआ है, वैसा हमने कभी नहीं किया, न करते हैं. यही हमें कहना था. आप देखेंगे अच्छा भला कहने-लिखने वाला संभावनापूरित रचनाकार, जिसकी भाषा उर्दू नहीं है, ग़ज़लों पर हाथ आज़माने के क्रम में पता नहीं उसे क्या हो जाता है. वो अनावश्यक ही उर्दू की लिपि की तकनीकियों में उलझ जाता है. जबकि वह देवनागरी लिपि में लिख रहा है. उर्दू शब्दों का प्रयोग एक बात है, देवनागरी लिपि की सीमा में उर्दू लिपि के नियम लागू करना एकदम से दूसरी बात. इसे ही हम ’प्रचलन’ की तरह कह रहे हैं. इस ओर क्या सचेत दृष्टि नहीं जानी चाहिये ? इसकी बात क्यों न हो ?
जिनकी भाषा उर्दू है, लिपि उर्दू है, उनकी कही अर्थवान ग़ज़लों पर हम सभी दिल से नत होते हैं.
हाँ, यह अवश्य है कि अनावश्यक भाषायी दृढ़ता या ज़िद रचनाकर्म और रचनाओं के लिए बन्धन भी हो जाते हैं. भाषा अनवरत बहने वाली सरिता है. इसका कोई एक स्थायी रूप नहीं हो सकता. होना भी नही चाहिये. लेकिन इस पर भ्रम आखिर है कहाँ? न आपको है, न हमें है. आप भी वही कह रहे जो हम कह रहे हैं.
एक बात, ये सारा कुछ, यानी, ’अतिवादी प्रयोग’ और पता नहीं क्या-क्या, ग़ज़ल को ही ले कर क्यों है? है न ? कोई प्रस्तुति या रचनाकर्म किसी भाषा में हुआ भाव-संप्रेषण ही तो है.
// मैं जानता हूँ कि ऐसी भावभूमि की ग़ज़लों को आप किस तरह से लेते हैं. //
आदरणीय मुझे नहीं समझ आ रहा था कि आपके इस वाक्य को किस तरह समझूं इसलिए पिछले कमेन्ट में अपने विचार को स्पष्ट करने की कोशिश की है ...
१ - कोई प्रयोग नहीं करता.
२ - यह अवश्य है कि सामान्य नज़रिये से जिन रचनाओं को ’ग़ज़लें’ कहने का प्रचलन है, वैसी रचनाएँ मैं नहीं करता, न वैसे शब्दों का प्रयोग करता हूँ.
आपकी ये दो बातें आपस में विरोधाभासी हैं
यहाँ अरूज़ के अतिरिक्त अन्य पहलुओं पर बात हो रही है तो आपकी कही दूसरी बात से क्या अर्थ निकलता है.. यही कि आप कुछ अलग करते हैं, "कुछ अलग करने" को ही प्रयोग की संज्ञा दी जाती है
हाँ "सब कुछ अलग" ही हो तो उसे "शैली" भी कहा जा सकता है
आप अपने ग़ज़ल लेखन में कहन की एक शैली विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं और मैं इसे अतिप्रयोगवाद के रूप में देखता हूँ
आपसे आय्मीय जुड़ाव ही आपके ग़ज़ल लेखन पर कुछ कहलवाता है अन्यथा अतिप्रयोगवादी सोच के साथ कई लोग आगे बढ़ रहे हैं
पुनः अपने निवेदन के साथ प्रस्तुत हूँ कि,
यह तो आप भी मानते हैं कि प्रयोगधर्मिता का सम्मान होना चाहिए मगर प्रयोग करने के पूर्व स्थापित अवधारणाओं से जूझना आवश्यक होता है|
जैसे दोहे के प्रति आप सरलतम हुए हैं और "यू नो आई मीन" की जमीन को छू रहे हैं वैसे ही ग़ज़ल के प्रति आपका नजरिया सदैव प्रयोगधर्मी ही न रहे आपसे मुझे बस इतनी सी अपेक्षा है ....
आदणीय उमेश कटाराजी, पसंदग़ी ज़ाहिर करने केलिए हार्दिक धन्यवाद,
वीनस भाई, हम तो आपके मंतव्यों का ही अनुमोदन कर रहे थे -- आपकी उपस्थिति निस्संदेह भली लगी. कहा आपने कुछ नहीं, लेकिन मैं जानता हूँ कि ऐसी भावभूमि की ग़ज़लों को आप किस तरह से लेते हैं.
सो, क्या-क्या कह गये, स्पष्ट नहीं हुआ.
फिर, ऐसी भावभूमि की ग़ज़ल !!!
इसका तात्पर्य क्या हुआ ?
और, ग़ज़ल के प्रति आपका नजरिया सदैव प्रयोगधर्मी ही न रहे आपसे मुझे बस इतनी सी अपेक्षा है ....
इसे भी स्पष्ट करें.
मैं लाख प्रयास करूँ, ग़ज़ल के शिल्प में कहता सदा ग़ज़ल ही हूँ. कोई प्रयोग नहीं करता. यह अवश्य है कि सामान्य नज़रिये से जिन रचनाओं को ’ग़ज़लें’ कहने का प्रचलन है, वैसी रचनाएँ मैं नहीं करता, न वैसे शब्दों का प्रयोग करता हूँ. लेकिन अरुज़ के प्रति मैं सदा से दृढ रहा हूँ, बशर्ते प्रस्तुति में अपनायी गयी भाषा की लिपि और व्याकरण का सम्मान हो. ग़ज़ल के नाम पर मैं अन्य लिपियों और भाषाओं को जबरदस्ती ओढ़ने या थोपे जाने का हामी नहीं हूँ. आप भी इस तथ्य का अनुमोदन करते हैं कि ऐसी कोई प्रक्रिया ग़ज़लगोई न हो कर कुछ और है.
बाकी सब ठीक है.
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