मध्य अपने जम गयी क्यों बर्फ़.. गलनी चाहिये
कुछ सुनूँ मैं, कुछ सुनो तुम, बात चलनी चाहिये
खींचता है ये ज़माना यदि लकीरें हर तरफ
फूल वाली क्यारियों में वो बदलनी चाहिये
ध्यान की अवधारणा है, ’वृत्तियों में संतुलन’
उस प्रखरतम मौन पल की सोच फलनी चाहिये !
हो सके तो बन्द सारी खिड़कियाँ हम खोल दें
अब शहर में ज़िन्दग़ी की साँस चलनी चाहिये
देश के उत्थान की चिंता करे सरकार ही ?
राष्ट्र-हित की आग तो हर दिल में’ जलनी चाहिये
भेद मत्सर औ’ घृणा के रोक ले अवशिष्ट जो-
हाथ में हर नागरिक के एक छलनी चाहिये
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-सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
वाह ! बहुत खूब | सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई सादर |
आदरणीय सौरभ सर ..आज बहुत दिनों बाद आपके ग़ज़ल पढने को मिली ....कहीं मशविरा ..कहीं खुशहाली की कामना करती ....कहीं आध्यत्मिक बोध कराती ....कहीं हिदायत देती ..कहीं देश के सर्वोपरी हितों की बात करती ..कहीं देश में अमन चैन खुशहाली के लिए नागरिकों को उनका कर्तव्य बोध कराती शसक्त शानदार ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई सादर प्रणाम के साथ
बेहतरीन तहरी गज़ल हुयी है आ० सौरभ सर!हरेक शेर अपने आप में गहन अर्थ लिए हुए!अभिनन्दन!
आदरणीय मोहन सेठी जी, आपका हार्दिक स्वागत है. प्रस्तुति को अनुमोदित करने के लिए धन्यवाद
वीनस भाई, आपकी उपस्थिति निस्संदेह भली लगी. कहा आपने कुछ नहीं, लेकिन मैं जानता हूँ कि ऐसी भावभूमि की ग़ज़लों को आप किस तरह से लेते हैं.
विश्व पुस्तक मेला, प्रगति मैदान में आयोजित ग़ज़ल गोष्ठी ’हिन्दी ग़ज़ल की नयी पीढ़ी’ में अपनी ग़ज़ल कहने के पूर्व जो कुछ मैंने कहा था, वैसी ही सोच ग़ज़ल के इस प्रारूप को सदिश बना सकती है. सोच और विचार ही नहीं इंगितों और बिम्बों से भी भाव इसी भूमि के हों.
इस संदर्भ में अयोध्या प्रसाद गोयलीय की शेर-ओ-सुख़न के प्रथम भाग के प्रारम्भिक चैप्टरों के कथ्य अनुमन्य व स्वीकार्य होने चाहिये.
आदरणीय मिथिलेश भाई, हिन्दी ग़ज़ल की भावभूमि को यदि उर्वर करना है तो प्रयास ही नहीं वैचारिकता को भी तदनुरूप रखना होगा. ’बाग़’ को मात्र ’उपवन’ या ’ज़रूरत’ को ’आवश्यकता’ कर देने से कोई ग़ज़ल हिन्दी भावभूमि की रचना नहीं हो जाती. इस संदर्भ में आदरणीय ख़ुर्शीद ख़ैराडी या आदरणीय नीलेशजी की ग़ज़लों को मैं सार्थक प्रायस के रूप में देखता हूँ. जबकि आदरणीय नीलेशजी की ग़ज़लों में अमूमन उर्दू के शब्द हुआ करते हैं. हो सकता है वे आगे अपनी दिशा तनिक बदल लें.
शुभ-शुभ
भाई जितेन्द्रजी, आपकी अनुशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद.
आदरणीय विजय शंकरजी, आपकी प्रशंसा मेरे लिए गहन अर्थ रखती है. आपने जिस शेर को उद्धृत किया है वह तनिक अलग भावदशा को इंगित करता है.
अनुमोदन के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय.
वाह जनाब वाह ...बहुत खूब शेर हैं ....सादर
खींचता है ये ज़माना यदि लकीरें हर तरफ
फूल वाली क्यारियों में वो बदलनी चाहिये
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