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चली गई मेरी मंज़िल कहीं पे चल के क्या
या रह गया मैं कहीं और ही बहल के क्या
वहाँ पे गाँव था मेरा जहाँ दुकानें हैं
किसी से पूछता हूँ , देख लूँ टहल के क्या
असर बनावटी टिकता कहाँ था देरी तक
वही पलों में तुम्हें रख दिया बदल के क्या
हरेक हाथ में पत्थर छुपा हुआ देखा
ये गाँव फिर से रहेगा कभी दहल के क्या
मेरा ये घर सही मिट्टी, मगर ये मेरा है
मुझे न पूछ थे अरमाँ कभी महल के क्या
मुझे लगा कि अब , सूरज उदास रहता है
चलो तो पूछें, वो रोता रहा था ढल के क्या
बहक ही जाने दो मुझको, कि अब बचा क्या है
ये लम्हें आखिरी हैं अब करूँ सँभल के क्या
परों का साथ नहीं है जिसे उड़ानों में
तुम्हीं कहो वो करे फर्श पे उछल के क्या
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
वाहहहह वाहहहह क्या बात है सर
आदरणीय केवल भाई , आपकी सराहना ने गज़ल का मान बढ़ा दिया , आपका बहुत आभार ॥
आदरणीय सुशील सरना भाई , हौसला अफज़ाई का बेहद शुक्रिया आपका ।
आदरणीय मिथिलेश भाई , गज़ल पर आपकी विस्तृत प्रतिक्रिया के लिये दिली शुक्रिया , कुछ शे र आपको पसंद आये तो संतोष हुआ । जिन अशआर का आपने जिक्र किया है , मै उनमें सुधार करने का प्रयस करूँ गा । अगर कोई सलाह सूझे तो ज़रूर साझा कीजियेगा । आपका पुनः आभारी हूँ ॥
आदरणीय श्याम भाई , हौसला अफज़ाई का बहुत शुक्रिया ॥
आदरणीय कृष्णा भाई , गज़ल की सराहना और उत्साह्वर्धन के लिये आपका दिली शुक्रिया ॥
आ0 भंडारी भाई जी, सुंदर गज़ल के लिये दाद कुबूल करे. सादर
बहक ही जाने दो मुझको, कि अब बचा क्या है
ये लम्हें आखिरी हैं अब करूँ सँभल के क्या
वाह आदरणीय गिरिराज भंडारी जी वाह बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल हुई है … हार्दिक मुबारकबाद कबूल फरमाएं सर।
आदरणीय गिरिराज सर बेहतरीन ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं-
चली गई मेरी मंज़िल कहीं पे चल के क्या
या रह गया मैं कहीं और ही बहल के क्या................ वाह बेहतरीन मतला
वहाँ पे गाँव था मेरा जहाँ दुकानें हैं
किसी से पूछता हूँ , देख लूँ टहल के क्या.............. वाह वाह
असर बनावटी टिकता कहाँ था देरी(?) तक
वही पलों में तुम्हें रख दिया बदल के क्या........... शेर खुल नहीं रहा है सर.
हरेक हाथ में पत्थर छुपा हुआ देखा
ये गाँव फिर से रहेगा कभी दहल के क्या............फिर से और कभी का एक साथ प्रयोग ?
मेरा ये घर सही मिट्टी, मगर ये मेरा है
मुझे न पूछ थे अरमाँ कभी महल के क्या..............मिसरा-ए-उला के स्पष्ट कथन के बाद सानी में पूछ के प्रयोग पर सशंकित हूँ सर.
मुझे लगा कि अब , सूरज उदास रहता है
चलो तो पूछें, वो रोता रहा था ढल के क्या.................. वाह
बहक ही जाने दो मुझको, कि अब बचा क्या है
ये लम्हें आखिरी हैं अब करूँ सँभल के क्या.......... बेहतरीन शेर
परों का साथ नहीं है जिसे उड़ानों में
तुम्हीं कहो वो करे फर्श पे उछल के क्या ........ उम्दा
सादर
लाजवाब रचना है बहुत बहुत बधाई आपको |
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