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घाट पर ठहराव कहाँ (लघुकथा)

धरा में कम्पन होते हुए एक सैलाब सा उमड़ पड़ा। सामने से आती उत्ताल नदी का वेग फट पड़ा था जमीन पर .....
धरा का हृदय विभक्त हो उठा दो किनारों में । धरा का खुद के अंश से अलगाव सहना ...!!
धरा का रूदन अब कौन सुने ..?
उन्मुक्त नदी अपनी ताव में जमीन की छाती चीरती हुई बढ़ चली थी ।
उसे क्या परवाह थी कि किसने चोट खाई .... !
बेबस थे दोनों किनारे ....बरसों,जो रहे थे एक दुसरे में समाहित ... वो आज .... !!
अब जीवन भर देखते ही रहना है एक दुसरे को.....यूँ ही ।
किनारे नदी की मार से घिस-घिस कर हनन होते रहे .... पीड़ा सहते रहे ।
घाट पर ठहर जाने के लिए तरसती रही .......पर हाय री क़िस्मत ...!!!
समय का चक्र....... ठहराव कहाँ देता है ....?


कान्ता राॅय
भोपाल
मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by kanta roy on May 13, 2015 at 11:09am
मै आप सबके समक्ष बडी अदना सी लेखिका हूँ ... गुढ़ ज्ञान से वंचित हूँ ..... कोई बडी डिग्री नही है साहित्य मे मेरे पास .... बस लिख देती हूँ जो दिल मे आता है .... कहती और समझती भी उतना ही हूँ जितना महसूस कर पाती हूँ ..... आप सबको रचनाएँ पसंद आई मेरे लिए यह उपहार से कम नही ..... अपनी कमियों को आप सब को पढकर गुनती रहती हूँ कुछ अक्षर बुनती रहती हूँ ..... सदा मार्गदर्शन मे आपके ...... आभार आपको आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी
Comment by kanta roy on May 13, 2015 at 11:01am
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी अलगाव सदा हृदय के लिए कष्टकारी ही साबित हुआ है चाहे वो बँटवारा देश का हो या राज्य का या हो यह बँटवारा घर का .... मानवीय संवेदनाएँ सदा से त्रस्त होती ही आई है । नमन आपको हौसला वर्धन के लिए
Comment by shree suneel on May 13, 2015 at 10:19am
आदरणीया कांता जी, इस भावपूर्ण, सुन्दर कविता के लिए बधाई आपको.
Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on May 13, 2015 at 7:49am

भावपूर्ण मार्मिक प्रस्तुति के लिये हार्दिक बधाई ...सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 13, 2015 at 6:23am
प्रकृति का मानवीकरण
बढ़िया प्रवाह शब्दों का
बहुत सुन्दर रचना
आपकी धारदार कलम से निकला शब्दों का जादू जो भाव स्तर पर भी दमदार है।
आदरणीया कान्ता जी बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 12, 2015 at 8:40pm

आदरनीया कांता जी , अलगाव के दर्द को खूब सूरत शब्द मिले हैं । रचना के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ।

Comment by kanta roy on May 12, 2015 at 6:36pm
आदरणीय डाक्टर विजय शंकर जी , दर्द बिछोह का एक ही होता है ..... बँटवारा चाहे धरती का हो या घर का ....बिछोह बहुतों पर भारी पडता है । निजी स्वार्थ में डूब कर जन हित को दरकिनार करने वाला, उत्ताल नदी के समान ही दुखदायी हो जाता है । कथा पसंदगी हेतु नमन आपको । आपके मार्गदर्शन की सदा अभिलाषी ।
Comment by kanta roy on May 12, 2015 at 6:31pm
लिखते हुए लेखन का मन भाव समंदर हो चुका था इसलिए कथ्य होते हुए भी कही विलुप्त हो गया । मन भावों पर जितना लगाम था लगाए मैने ......कोशिश की नदी का उत्ताल वेग समंदर की प्रलयंकर वेग ना बन जाये ... जो लिखा आपके समक्ष पेश किया .... आपने रचना पर नजरे करम किये । आभार आपको हृदय तल से नमन आदरणीय डाक्टर आशुतोष मिश्रा जी
Comment by Dr. Vijai Shanker on May 12, 2015 at 6:20pm
आदरणीय सुश्री कांता रॉय जी , देश के विभाजन का बहुत ही दर्द भरा चित्र प्रस्तुत किया है , पर शायद थोड़ा और मुखर होना अपेक्षित था।
बधाई इस मार्मिक प्रस्तुति पर , सादर।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 12, 2015 at 6:01pm

आदरणीया कांता जी  आदरणीय बिनोद जी ने बिलकुल सही कहा है ..लेकिन  रचना मुझे बहुत पसंद आयी ..नदी की तरह बहती हु ई रचना ..आपको सादर बधाई 

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